Book Title: Nirayavalika Sutra
Author(s): Atmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher: 25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab

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Page 444
________________ निरयावलिका] (३६६ ) [वर्ग-पंचम आकर, जाव एवं वयासी-हाथ जोड़कर इस प्रकार निवेदन किया, एवं खलु देवाणुप्पियाणं अतेवासी निसढे नाम अणगारे-भगवन् ! आपके प्रिय शिष्य निषध अनगार, पगइमद्दए-जो कि प्रकृति से अत्यन्त भद्र थे, जाव विणीए-और जो अत्यन्त विनीत थे, से णं भन्ते.! निसधे अणगारे-भगवन वे निषध अनगार, कालमासे कालं किच्चा कहिं गए-वे कालमास में काल करके कहां गए?, कहिं उववन्ने -कहां उत्पन्न हुए हैं ?, वरदत्तइ ! अरहा अरिठ्ठनेमी वरदत्तं अणगारं एवं वयासी एवं खलु वरदत्त-भगवान् अरिष्टनेमी जी ने "वरदत्त" यह सम्बोधन कर उससे कहा-आयुष्मन् वरदत्त, ममं अंतेवासी निसढे माम अणगारे पगइभद्दे-प्रकृति से भद्र मेरे प्रिय शिष्य निषध कुमार, जाव विण ए-जो कि अत्यन्त विनीत थे, ममं तहा रूवाणं थेराणं अन्तिए-मेरे तथारूप स्थविर सन्तों के, सामाइय माइयाइ एक्कारस अंगाई अहिज्जित्ता-सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन करके, बहुपडिपुण्णाई-प्रतिपूर्ण, नववासाई-नौ वर्षों तक, सामण्णपरियागं पाउणित्ता बायालीसं पाउणित्ता-श्रामण्य पर्याय (साधुत्व) पालन करके, बायालीसं .. भताई अणसणाए छेदेत्ता-बयालीस भक्तों (प्रातः-सायं के भोजनों) का उपवास व्रत द्वारा छेदन करके, आलोइय पडिक्कते-पाप स्थानों की आलोचना एवं प्रतिक्रमण करते हुए, समाहिपत्तेसमाधि पूर्वक, कालमासे कालं किच्चा-मृत्यु का समय आने पर प्राणों को त्याग कर, उड्ढं चंदिम-सरिय-गह-नक्खत्त तारारूवाणं-ऊर्ध्व लोक में चन्द्र-सूर्य ग्रह नक्षत्र एवं तारा रूप ज्योतिष्क देव विमानों, सोहम्मीसाणं जाव अच्चुते - सौधर्म ईशान आदि अच्युत देवलोकों का, तिणि य अट्ठारसुत्तरे गेविज्जविमाणावासए वीहवयित्ता-तथा तीन सौ अठारह अवेयक विमानों का अतिक्रमण करके, सट्ठ-सिद्ध-विमाणे-सर्वार्थ-सिद्ध विमान में, देवत्ताए उबवणे-देवता के रूप में उत्पन्न हुआ है, तत्थ णं देवाणं तेत्तीस सागरोवमा ठिई पण्णत्ता-वहां पर उत्पन्न देवों की तेंतीस सागरोपम की स्थिति कही गई है, (अतः निषध देव की भी वहां पर तेंतीस सागरोपम की स्थिति है)॥१२॥ मूलार्थ- तदनन्तर वरदत्त अनगार, निषध अनगार को कालगत हुआ जान कर जहाँ पर अर्हत् भगवान अरिष्टनेमी विराजमान थे, वहीं पर आते हैं. वहां आकर (उन्होंने) हाथ जोड़ कर इस प्रकार निवेदन किया-भगवन् ! आपके प्रिय शिष्य निषध अनगार जो कि प्रकृति से अत्यन्त भद्र थे और जो अत्यन्त विनीत थे । भगवन वे निषध अनगार काल मास में काल करके कहां गए हैं ? कहां उत्पन्न हुए हैं ? भगवान् अरिष्टनेमी जी ने "वरदत्त" यह सम्बोधन कर उससे कहा-प्रकृति से भद्र मेरे प्रिय शिष्य निषध कुमार जो कि अत्यन्त विनीत थे, मेरे तथारूप स्थविर सन्तों से सामायिक आदि ग्यारह . अंगों का अध्ययन करके नौ वर्षों तक शमण्य - पर्याय (साधुत्व) का पालन करके

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