Book Title: Nirayavalika Sutra
Author(s): Atmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher: 25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab

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Page 420
________________ निरयावलिका ] [ वर्ग - पंचम थी, तीसे णं वारवईए नयरी बहिया - उस द्वारिका नगरी के बाहर, उत्तरपुरस्थिमे दिसी भाएउत्तर पूर्व के कोण - ईशान कोण में, तत्थ णं रेवए नाम पव्वए होत्था - एक रैवतक नाम का पर्वत था, तुरंगे गगण-तल मणुविहंत सिहरे-जो कि बहुत ऊंचा था और उसके शिखर गगन चुम्बी थे, वि-रुक्ख गुच्छ गुल्मलता वल्ली - परिगताभिरामे - और नानाविध वृक्षों गुच्छों गुल्मों और लताओं एवं बेलों से घिर कर वह नगर बहुत ही सुन्दर प्रतीत हो रहा था, हंस-मिय-मयूर-क्रौंचसारस-चक्कबाग-मयणसाला - को इल- कुलोव वेए - तथा हंस मृग मयूर, क्रौञ्च (कुरर), सारस, चक्रवाक (चकवा), मदनशाला (मैना) और कोयल आदि, पक्षियों के समूह से सुशोभित था, अणेग-तटकडग- वियर ओज्झर पवाय पूभार सिहरपउरे - और उस पर्वत पर अनेक नदी नालों के सुन्दर तट कटक (वृक्षाच्छादित गोल भाग), झरने और जल प्रपात गुफायें और कुछ झुके हुए पर्वतशिखर आदि बहुत बड़ी संख्या में थे, अच्छरगण देव संग चारण-विज्जाहर मिहुण-संनिविन्नेउसी पर्वत पर अप्सरायें देवसमूह चारण जंघाचारण आदि विशिष्ट साधु और विद्याधरों के युगल आकर क्रीडायें कर रहे थे, निच्चच्छणए - और वहां नित्य नानाविध महोत्सव होते रहते थे, बसार वरवीर पुरिस- तेलोक्क बलवगाणं - दशार्हकुल के श्रेष्ठ वीरों एवं वलवानों का वह पर्वत, श्री भगवान नेमिनाथ जी की तपस्थली होने के कारण सब के लिए शुभकारी एवं शान्त स्थल था, पियदंसणे सुरूवे – वह नेत्रों के लिये आल्हादकारी, सुन्दर आकार-प्रकार वाला, पासईए जाव पडिरूवे – प्रसन्नता पूर्ण और दर्शकों के मन को आकृष्ट करनेवाला था । ( ३४२ ) तत्थ णं रेवयणस्स पव्वयस्स उस रैवतक पर्वत के, अदूरसामंते - बहुत निकट ही, तत्थ णं नन्दनवणे नाम - एक नन्दन वन नामक उज्जाणे होत्था – उद्यान था, (जिसमें ), सव्वोउपक- सभी ऋतुओं के पुष्प होने से, जाव दरसणिज्जे- वह अत्यन्त दर्शनीय था, तत्थ णं नंदणवणे उज्जाणे – उस नन्दनवन नामक उद्यान में, सुरप्पियस्स जक्खस्स नक्खाययणे होत्याएक सुरप्रिय नामक यक्ष का यक्षायतन था, चिराइए जाव- जो कि बहुत प्राचीन था, बहुजणी आगम्म अच्चेइ - वहां आकर अनेक लोग उसकी पूजा अर्चना किया करते थे, से णं सुरपिए जक्खाणे - वह सुरप्रिय यक्षायतन, एगे महया - एक बहुत बड़े, वनसंडे - वनखण्ड द्वारा समंत्ता संपरिक्खित्ते- चारों ओर घिरा हुआ था, जहा पुण्णभद्दे जाये सिलावट्टए - जैसे शिला-पट्ट से युक्त पूर्णभद्र उद्यान घिरा हुआ था || २ || मूलार्थ - भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने वृष्णिदशा नाम के पांचवें उपांग के बारह अध्ययन बतलाये हैं, तो उन बारह अध्ययनों में से प्रथम अध्ययन में किस विषय का वर्णन किया है ? उतर में श्री सुधर्मा स्वामी जी कहते हैं - हे जम्बू ! उस काल एवं उस समय में द्वारका नाम की एक नगरी थी, जो बारह योजन लम्बी थी, ( और जो ) प्रत्यक्ष

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