Book Title: Nirayavalika Sutra
Author(s): Atmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher: 25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab

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Page 428
________________ निरयावलिका) (३५०) [वर्ग-पंचम हाथ जोड़कर. कण्ह वासुदेवं-वासुदेव श्री कृष्ण को, जएणं विजएण वद्धाति-जय - विजय शब्दों से उनको वर्धापन देते हैं-उनका अभिनन्दन करते हैं। तएणं से कण्हे वासुदेवे-तदनन्तर वासुदेव श्री कृष्ण ने, कोड बियपुरिसे एवं वयासीअपने पारिवारिक एवं निजी दासों को यह आज्ञा दी, खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! हे देवानुप्रियों! तम शीघ्र ही, आभिसेक्कं हत्थिरयणं कप्पेड़-आभिषेक्य हस्तीरत्न को सजाकर तैयार करो, हयगयरहपवरजाव - तथा हाथी घोड़ों और पदातियों से युक्त यावत् चतुरंगिणी सेना को तैयार करके, पच्चप्पिणंति--मुझे आकर सूचित करो। तएणं से कण्हे वासुदेवे-तदनन्तर वासुदेव श्री कृष्ण ने, मज्जणधरे जाव दुरुढे-स्नानघर में प्रवेश कर (और वहां स्नान करके तदनन्तर वस्त्रालंकारों आदि से सुसज्जित होकर) वे हाथी पर सवार हो गए, अठ्ठट्ठ मंगलगा-आठ मांगलिक द्रव्य उनके आगे - आगे चले, जहा कृणिए-राजा कूणिक के समान, सेयवर चामरेहि-श्रेष्ठतम चवर उन पर, उद्धयमाणेहिउदयमाणेहि-डुलाए जाने लगे, समुद्दविजयपामोखैहि वसहि दसारेहि - समुद्र विजय आदि दस दशाह क्षत्रिय, जाव सत्थवाहप्पभिहि सद्धि-सार्थवाहों आदि के साथ, संपरिवुडे सम्विड्ढीए जाव रवेणं-सर्वविध राजसी समृद्धियों और विविध वाद्यों के मधुर एवं उच्च स्वरों के साथ बारवई नार मज्झं मझेणं-द्वारका नगरी के बीचों-बीच मध्यमार्ग से निकले और रैवतक पर्वत पर पहुंच कर भगवान् श्री अरिष्टनेमि जी की, सेसं जहा कृणिो जाव पज्जवासह-शेष सब वर्णन कूणिक के समान समझते हुए श्री कृष्ण द्वारा भगवान् की पर्युपासना आदि कार्य समझ लेने चाहिये ॥६॥ मूलार्थ-जोर-जोर की ध्वनियों वाली उस सामुदानिक भेरी के बजाए जाने पर, समुद्र विजय प्रमुख दशाह क्षत्रिय जो रुक्मणी आदि देवियां पोछे बत लाई गई हैं और अनेक सहस्र गणिकायें राजेश्वर एवं सार्थवाह आदि स्नानादि करके तथा प्रायश्चित्त अर्थात् मांगलिक कार्य करके सभी प्रकार के अलंकारों से विभूषित होकर अपनी-अपनी समृद्धि सत्कार एवं अभ्युदय सूचक वैभव के साथ अनेक घोड़ों पर और अनेक हाथियों पर सवार होकर अपने-अपने दासों को साथ लेकर जहां पर वासुदेव श्री कृष्ण थे वहीं पर पहुंच जाते हैं और वहां पहुंच कर दोनों हाथ जोड़कर वासुदेव श्री कृष्ण को, जय विजय शब्दों से वर्धापन देते हैं - उनका अभिनन्दन करते हैं। तदनन्तर वासुदेव श्री कृष्ण ने अपने पारिवारिक एवं निजी दासों को. यह आज्ञा दी। हे देवानुप्रियों ! तुम शीध्र ही आभिषेक्य हस्तिरत्न को सजा कर तैयार

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