Book Title: Navtattvasangraha tatha Updeshbavni
Author(s): Atmaramji Maharaj, Hiralal R Kapadia
Publisher: Hiralal R Kapadia

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Page 237
________________ २०८ cons श्रीविजयानंदसूरिकृत [८ बन्धतत् अपर्याप्ति रचना गुणस्थान ३-१२२।४, बंधप्रकृति ९ है. पूर्वोक्त तिर्यंचायु अने मनुष्यायुः एवं २ नास्ति. पहिले, दूजे, चौथे पर्याप्तवत्. मि ९८ तीर्थकर उतारे. मिथ्यात्व १, हुंड १, नपुंसक १, छेवट्ठ १; एवं ४ विच्छित्ति. २ सा ९४ अनंतानुबंधी आदि २४ विच्छित्ति व्यौरा माधवीके सास्वादनवत् तीर्थकर १ मिले अथ आनत आदि अवेयक पर्यंत रचना गुणस्थान ४ आदिके बंधप्रकृति ९७ अस्ति. पूर्वोक्त १९ सनत्कुमार आदिवाली अने तिर्यंचत्रिक ३, उद्योत १; एवं २३ नही. तीसरे गुण. स्थानकी रचना बहुश्रुतसे समज लेनी. १ मि ९६ तीर्थंकर उतारे. मिथ्यात्व १, हुंड १, नपुंसक १, छेवट्ठा १; एवं ४ विच्छित्ति । अनंतानुबंधी ४, स्त्यानगृद्धित्रिक ३, दुर्भग १, दुःस्वर १, अनादेय १, संस्थान सा ९२ ४ मध्यके, संहनन ४ मध्यके, अप्रशस्त गति १, स्त्रीवेद १, नीच गोत्र १; सर्व २१ विच्छित्ति ___ मनुष्यायु १ उतारे ४ | अ |७२ मनुष्यायु १, तीर्थकर १; एवं २ मिले तत् अपर्याप्ति रचना गुणस्थान ३-१।।४; बंधप्रकृति ९६ है. पूर्वोक्त २३ अने मनुप्यायु १; एवं २४ नास्ति. मनुष्यायु घटा देना. पहिले ९५, दूजे ९१, चौथे ७१ है. अथ पांच अनुत्तर रचना गुणस्थान १-चौथा; बंधप्रकृति ७२. पूर्वोक्त २३ तो आनत आदि रचनावाली अने मिथ्यात्व १, हुंड १, नपुंसक १, छेवट्ठा १, अनंतानुबंधी ४, स्त्यानगृद्धित्रिक ३, दुर्भग १, दुःस्वर १, अनादेय १, संस्थान ४ मध्यके, संहनन ४ मध्यके, अप्रशस्त गति १, स्त्रीवेद १, नीच गोत्र १; एवं ४८ नही. तत् अपयोप्तरचना मनुष्यायु १ नही. और सर्व पूर्वोक्तवत्.. ___ अथ एकेन्द्रिय १, विकलत्रय ३, अपर्याप्ति रचना गुणस्थान २ आदिके बंधप्रकृति १०७ है. आहारकद्विक २, तीर्थकर १, देवत्रिक ३, नरकत्रिक ३, वैक्रियद्विक २, मनुष्यायु १, तिर्यंचायु १; एवं २३ नास्ति. करण-अपर्याप्त. । मिथ्यात्व १, हुंड १, नपुंसक १, छेवट्ठा १, एकेन्द्रिय १, थावर १, आतप १, सूक्ष्म १, अपर्याप्त १, साधारण १, विकलत्रय ३; एवं १३ विच्छित्ति २ सा ९४ ० ० ० अथ एकेन्द्रिय १, विकलत्रय ३ पर्याप्त रचना गुणस्थान १-मिथ्यात्व १; बंधप्रकृति १०९ है. पूर्वोक्त १०७; मनुष्यायु १, तिर्यंचायु १, ए दोइ अधिक वधी. अथ एकेन्द्रिय, विकलत्रय अलब्धिपर्याप्त रचना गुणस्थान १-मि० बंध १०९ पूर्वोक्त. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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