Book Title: Navtattvasangraha tatha Updeshbavni
Author(s): Atmaramji Maharaj, Hiralal R Kapadia
Publisher: Hiralal R Kapadia

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Page 281
________________ २५२ श्रीविजयानंदसूरिकृत नित्यानित्य एकानेक सासतीन वीतीरेक भेद ने अभेद टेक भव्याभव्य ठये है शुद्धाशुद्ध चेतन अचेतन मूरती रूप रूपातीत उपचार परमकुं लये है ६ सिद्ध मान ज्ञान शेष एकानेक परदेश द्रव्य खेत काल भाव तत्त्व नीरनीत है नय सात सत सात भंगके तरंग थात व्यय ध्रुव उतपात नाना रूप कीत है रसकुंप केरे रस लोहको कनक जैसे तैसे स्यादवाद करी तत्त्वनकी रीत है मिथ्यामत नाश करे आतम अनघ धरे सिद्ध वधु वेग वरे परम पुनीत है ७ धरती भगत हीत जानत अमीत जीत मानत आनंद चित भेदको दरसती आगम अनुप भूप ठानत अनंत रूप मिथ्या भ्रम मेटनकुं परम फरसती जिन मुख वैन ऐन तत्त्वज्ञान कामधेन कवि मति सुधि देन मेघ ज्युं वरसती गणनाथ चित(त) भाइ आतम उमंग धाइ संतकी सहाइ माइ सेवीए सरसती ८ अधिक रसीले झीले सुखमे उमंग कीले आतमसरूप ढीले राजत जीहानमे कमलवदन दीत सुंदर रदल(न) सीत कनक वरन नीत मोहे मदपानमे रंग वदरंग लाल मुगता कनकजाल पाग धरी भाल लाल राचे ताल तानमें छीनक तमासा करी सुपनेसी रीत धरी ऐसे वीर लाय जैसे वादर विहानमें ९ आलम अजान मान जान सुख दुःख खान खान सुलतान रान अंतकाल रोये रतन जरत ठान राजत दमक भान करत अधिक मान अंत खाख होये है केसुकी कलीसी देह छीनक भंगुर जेह तीनहीको नेह एह दुःखबीज वोये है रंभा धन धान जोर आतम अहित भोर करम कठन जोर छारनमे सोये है १० इत उत डोले नीत छोरत विवेक रीत समर समर चित नीत ही धरतु(त) है रंग राग लाग मोहे करत कूफर धोहे रामा धन मन टोहे चितमे अचेतु(त) है आतम उधार ठाम समरे न नेमि नाम काम दगे(हे) आठ जाम भयो महाप्रेतु(त) है तजके धरम ठाम परके नरक धाम जरे नाना दुःख भरे नाम कौन लेतु(त) है ११ ईस जिन भजी नाथ हिरदे कमलपाथ नाम वार सुधारस पीके महमहेगो दयावान जगहीत सतगुरु सुर नीत चरणकमल मीत सेव सुख लहेगो आतमसरूप धार मायाभ्रम जार छार करम वी(वि)डार डार सदा जीत रहेगो दी(दे)ह खेह अंत भइ नरक निगोद लइ प्यारे मीत पुन कर फेर कौन कहेगो ! १२ उदे भयो पुन पूर नरदेह भुरी नूर वाजत आनंदतूर मंगल कहाये है भववन सघन दगध कर अगन ज्युं सिद्धवधु लगन सुनत मन भाये है सरध्या(घा)न मूल मान आतम सुज्ञान जान जनम मरण दुःख दूर भग जाये है संजम खडग धार करम भरम फार नहि तार विषे पिछे हाथ पसताये है १३ ऊंच नीच रंक कंक कीट ने पतंग ढंक ढोर मोर नानाविध रूपको धरतु है श्रंगधार गजाकार वाज वाजी नराकार पृथ्वी तेज वात वार रचना रचत है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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