Book Title: Navtattvasangraha tatha Updeshbavni
Author(s): Atmaramji Maharaj, Hiralal R Kapadia
Publisher: Hiralal R Kapadia

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Page 267
________________ श्रीविजयानंद सूरिकृत [ ८ बन्ध दस पूर्वोक्त षट्कायवध भय जुगुप्सा प्रक्षेपे १७ होते है; तिहां भंगा १५२०. एवं पूर्वोक्त सास्वादन के बंधहेतु सर्व एकत्र करे ३८३०४० इति सास्वादनके बंधहेतु समाप्त २. २३८ मिश्रदृष्टि तेही दसमे अनंतानुबंधी वर्जित नव होय है. एकैक काया वधे पांच इन्द्रिय व्यापारा, एवं ३० भांगे एकैक युगले त्रिंशत् ; एवं ६०. एकैक वेदे साठ साठ; एवं १८०, एकैक कषाये ७२०. एवं दश जोगसे गुण्या ७२००, ६५x२३\४×१०. एनव हेतु नव पूर्वोक्त द्विकायवध युक्त १० होइ पूर्ववत् १८०००, अथवा भय प्रक्षेपे १०; तिहां ७२०० भंगा, एवं जुगुप्सा प्रक्षेपे ७२०० एवं एकत्र दस समुदायना सर्व ३२४०० भंगा. नव पूर्वोक्त त्रिकायवध युक्त ११ होते है; तिहां २४००० भंगा. तथा द्विकायवध भय प्रक्षेपे ११ हुइ. तिहां १८०००, एवं द्विकायवध जुगुप्सा प्रक्षेपे १८००० अथवा भय जुगुप्सा प्रक्षेपे १९ हुइ तिहां भंगा ७२०० एवं सर्व ६७२००. नव पूर्वोक्त चार काय वध युक्त बारा हुइ; तिहां १८००० अथवा त्रिकायवध भय प्रक्षेपे १२ तिहां २४००० भंगा एवं त्रिकायवध जुगुप्सा प्रक्षेपे २४००० अथवा द्विकायवध भय जुगुप्सा प्रक्षेपे १२, इहां पिण १८००० एवं सर्व मिले ८४०००. नव पूर्वोक्त पांच काय वध युक्त १३ हुइ; तिहां भांगा ७२००, अथवा चार काय वध भय प्रक्षेपे १३ तिहां १८००० भंगा. एवं चार काय वध जुगुप्सा प्रक्षेपे १८०००, अथवा त्रिकायवध भय जुगुप्सा प्रक्षेपे १३ तिहां भांगा २४०००, सर्व एकत्र ६७२००. नव पूर्वोक्त षट्कायवध युक्त १४ होते है; इहां भांगा १२०० अथवा पांच काय व भय प्रक्षेपे १४; तिहां भांगा ७२०० एवं पांच काय वध जुगुप्सा प्रक्षेपे ७२००. अथवा चार काय वध भय जुगुप्सा प्रक्षेपे १४; तिहां १८००० भांगा. सर्व एकत्र करे ३३६०० इति १४ समुदाय. नव पूर्वोक्त षट्कायवध भय प्रक्षेपे १५ होते है; तिहां पूर्ववत् भांगा १२०० एवं षट्कायवध जुगुप्सा प्रक्षेपे १२०० अथवा पांच काय वध भय जुगुप्सा प्रक्षेपे १५, तिहां भांगा पूर्ववत् ७२०० ए सर्व ९६००. ए १५ समुदाय. नव पूर्वोक्त षट्कायवध भय जुगुप्सा युक्त सोला होते है; इहां भांगा १२००, सर्व मिश्रष्टि मंगा मिलाय करे ३०२४००० इति मिश्रदृष्टिहेतवः समाप्ताः ३ एक काय १, एक इन्द्रिय १, एक युग्म १, एक वेद १, तीन कषाय ३, एक योग १, एह नव हेतु होते है जघन्य, अथ चक्ररचना ६/५/२/३/४/२. इहां प्रथम योगा करी वेदांक For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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