Book Title: Navtattvasangraha tatha Updeshbavni
Author(s): Atmaramji Maharaj, Hiralal R Kapadia
Publisher: Hiralal R Kapadia

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Page 257
________________ २२८ - ४ ५ 13 5 5 5 अ १४१ दे प्र अ ६ ७ ८ ९ अ अ "" 33 33 १३८ 55 १० सू १०२ ११ उ १०१ १२ क्षी १३ स १४ अ 39 ८५ Jain Education International "" ० भाग एकरी ३६की विच्छित्ति व्यौरा गुणस्थानरचनावत् संज्वलन लोभ विच्छित्ति ० श्री विजयानंदसूरिकृत प्रकृति तीर्थकर १ आहारकद्विक २, देव-आयु १ विकलत्रिक ३, सूक्ष्म ३, नरक, तिर्थ‍, मनुष्य-आयु ३, सुरद्विक २, वैक्रियद्विक २, नरकद्विक २; सर्व १५ एकेंद्री १, थावर १, आतप १ तिर्येच गति १, तिर्यचानुपूर्वी १, औदारिकद्विक २, उद्योत १, छेवट्ठा १ शेष ९२ प्रकृति निद्रा १, प्रचला १, ज्ञानावरण ५, दर्शना० १, वर्ण ४, अंतराय ५ विच्छित्ति आयु ३ की विच्छित्ति स्वामि ४ गुणस्थान ७ अप्रमत्त मिथ्यात्व मिध्यात्ववत्. साखादन साखादनवत्, मिश्र मिश्रगुणस्थानवत् अथ संज्ञी रचना गुणस्थानरचनावत् गुणस्थान १२ पर्यंत. अथ असंज्ञी रचना गुणस्थान २ आदिके सा० १४७ अस्ति; तीर्थकर १ नही. पहिले १४७, दूजे १४७. अथ आहारक रचना गुणस्थानरचनावत् १३ लगे. अथ अनाहारक रचना कार्मणयोगरचनावत् इति सत्ताधिकार संपूर्ण. (१६५) उत्कृष्ट प्रकृतिबन्धयत्रम् (१६६) जघन्यप्रकृतिबन्धस्वामियन्त्रम् शतकात् तिर्यच, मनुष्य मिथ्यात्वी मिथ्यात्वी ईशानांत ० देवता, नारकी मिथ्यात्वी चारो गतिका मिथ्यात्वी ० ८५ व्यवच्छेदे मुक्तौ [ ८ बन्ध प्रकृति आहारक २, तीर्थकर १ संज्वलन ४, पुरुषवेद १ साता १, यश १, उच्चगोत्र ९, ज्ञानावरणीय ५, दर्श- सूक्ष्मसंपराय नावरण ४, अंतराय ५; एवं गुणस्थानवाला सर्व १७, नरकद्विक २, वैक्रियद्विक २, असंज्ञी तिर्यच देवद्विक २ पर्याप्त आयु ४ शेष प्रकृति ८५ रही For Private & Personal Use Only बन्ध-स्वामि ८ गुणस्थान नवमा गुणस्थाने संज्ञी असंज्ञी बादर एकेंद्री पर्याप्त www.jainelibrary.org

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