Book Title: Munisuvrat Kavya
Author(s): Arhaddas, Bhujbal Shastri, Harnath Dvivedi
Publisher: Jain Siddhant Bhavan Aara

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ [] अपने ही एक बहुत सुन्दर २५०००) रु० की लागत के 'भवन' में सुरक्षित है। इस समय इस में ३००० जैन एवं अजैन ग्रन्थ ताड़पत्राङ्कित तथा हस्त लिखित हैं। इन के अतिरिक्त छपे हुए जैन अजैन हिन्दी संस्कृत प्राकृत बंगला, कनडी, गुजराती महाराष्ट्री तथा अंग्रेजी आदि भाषा के प्रन्थों की संख्या ६००० के करीब है । "भवन" के उद्देश्यानुसार जैन ग्रन्थों की हो यहाँ अधिकता है। पिता जी अपनी अन्यान्य संस्थाओं के साथ साथ इस के लिये भी १५००) रु० सालाना आमदनी की स्थायी जागीर दे गये है जिस से इसका साधारण व्यय होता रहता है और सदा होता रहेगा ! कुछ दिन पहले मैं ने अपने पूर्व विचारानुसार एक ग्रन्थमाला निकालने का निश्चय किया तथा कार्यारंभ के लिये अपने पास से १९५०) रु० भवन को दिये। मेरी हार्दिक इच्छा है और मैं चेष्टा करूंगा कि इस ग्रन्थ-माला प्रकाशन का स्थायी प्रवन्ध सुगढ़ हो जाय। कई विद्वानों की राय पहले " श्रीमुनिसुव्रत काव्य " के प्रकाशन की हुई । मेरा विचार था कि जो भी ग्रन्थ प्रकाशित हों वे हिन्दी और अंग्रेजी अनुवाद के साथ हों परन्तु अभी अंग्रेजी अनुवाद का साधन नहीं मिल सका। हिन्दी अनुवाद इस संस्था के प्राचीन कार्य कर्त्ता–“भास्कर" के सहायक सम्पादक काव्य-पुराणतीर्थ पण्डित हरनाथ द्विवेदीजी सथा पुस्तकालयाध्यक्ष परिजन बी जी एन. ए. एन. के. बी. ने किया है। सम्पादन तथा संशोधन का कार्य भी दोनों मद्दाशयों ने मिलकर ही किया है। प्रथम प्रयास के कारण प्रकाशन में बहुत कुछ भूलों का होना संभव है और खासकर मेरे जैसे व्यक्ति के द्वारा जो इस विषय में अनुभव-रहित तथा इस भाषा से भी एक प्रकार से अनभिज्ञ ही हूँ । संस्कृत दाइपों में संयुक्ताक्षर की विरलता तथा कम्पोजिटरों की संस्कृतज्ञता के अत्यन्ताभाव से भी अशुद्धियों की अधिकता संभव है । पर यह ज्यों त्यों प्रकाशित होकर विज्ञानों की सेवा में पहुंच जाय, फिर उनके परामर्शानुसार दूसरे संस्करण में सभी सापेक्ष्य बातें सम्पन्न कर दी जायेंगी यही मेरा सदा लक्ष्य रहा । टीका में जितने कोषों का नाम-निर्देश किया गया है उन में से कई कोषों के अमुद्रित तथा अनुपलब्ध होने के कारण जहां तहां सम्पादक द्वय से सन्देह-निरसन नहीं हो सका है। श्र भवन की एक प्रति के अतिरिक्त मूड़वित्री के भरडर से केवल एक प्रति मिली थी जिस के लिये मैं मुड़विद्री के भट्टारक श्रीपण्डिताचार्य वारुकीर्त्ति जी और परिद्धत बड़ा ही आभारी हूं। इन्हीं दो प्रतियों के आधार पर इसका अधिक प्रति मिलने से परिचिन्मात्र जो दोष रह गया है बंद लोकनाथ शास्त्री जी का सम्पादन किया गया है। दूर हो जाता

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 231