Book Title: Munisuvrat Kavya
Author(s): Arhaddas, Bhujbal Shastri, Harnath Dvivedi
Publisher: Jain Siddhant Bhavan Aara

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Page 8
________________ प्रकाशकीय वक्तव्य अब से श्री जैन सिद्धान्त भवन" ( The Central Jain oriental lrbiary) की सेवा में हाथ बटाने का शुभावसर मुझे प्राप्त हुआ तभी से मेरी हार्दिक इच्छा थी कि इस संखा से कोई प्रन्थमाला निकाली जाय, जिस के द्वारा जैनाचार्यो की धवल कीर्ति सम्पूर्ण भारतवर्ष ही में नहीं वरन् सुदूर प्रदेशों में भी प्रसारित और साथ ही साथ उसके रसास्वादन से भव्य जीवों का कल्याण हो। स्वर्गीय कुमार देवेन्द्र प्रसाद जी ने जो इस संला के प्रधान सहायकों में थे इस ओर बहुत कुछ कार्य किया था और बहुत अंशों में यह उन्हीं की सेवाओं का फल है कि हमारे प्रन्थों का प्रचार और प्रतिष्ठा बाहर भी होने लगी है। ___एक समय वह था जब कि हमारे आचार्यों की तूती बोलती थी, उन की प्रगाढ़ विता तथा पूर्ण पाण्डित्य के आगे सभी नत-मस्तक होते थे, थे ही आचार्यवयं अपनी स्वाभाषिक परोपकार बुद्धि से लोगों के हित के लिये तथा उन्हें सन्मार्ग पर लाने के लिये भपने उस मगाध ज्ञान-भण्डार को अपनी मनोमुग्धकारी सरस काव्य-कुशलता-द्वारा अन्धरूप में संचालित कर गये हैं। हमारे दुर्भाग्य से कुछ स्वार्थी जीवों ने सार्वजनिक परो. पकार की उस अमूल्य थाती के बहुत कुछ अंशों को अंधेरी कोठरी में सड़ाकर नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है। फिर भी ओ कुछ बमा खुना है। वह अपने प्रासीन गौरव को प्रकट करने के लिये पर्याप्त है। यद्यपि अब भी कुछ भाई छापे इत्यादि का विरोध कर इस भमूल्य औषधी से अमलामात्र को लाभ लेने देना नहीं चाहते तो भी अब यह समय गया। हर्ष का विषय है कि बहुतेरे जैन विद्वानों का ध्यान इस ओर आकृष्ट हुआ है और हो रहा है। जिसके फलस्वरूप दो-तीन सुरक्षित भवन तथा कई एक पुस्तक प्रकाशकीय संस्थाप' विगत वर्षों से श्रीजिनवाणी की रक्षा तथा प्रचार में फलवती हुई है। "मारा श्री जैन सिद्धान्त भवन" हमारे स्वर्गीय श्रीपूज्य पिता जी द्वारा वि० १६०५ ई. में स्थापित हुआ था। और श्रीमान् पूज्य नेमी सागर जी वणों ( वर्तमान पद धीमदभिनव वारकीर्ति पाएतावार्थवर्य स्वामी जी श्रवोधेलगोल-पट्टाधीश । तपा स्वर्गीय कापू फरोड़ी चन्द जी के उद्योग से बहुत कुछ उन्नति कर गया है। बल्कि उपर्युक्त पूज्य स्वामी जी की "भवन" पर अब भी सदा कपा-दृष्टि बनी रहती है। वर्तमान में पर

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