Book Title: Munishwar suri krut Pramansar
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 3
________________ 20 अनुसंधान-२५ मात्र बे ज परिच्छेद प्रमाण छे, छतां तुलनामां धणी शुद्ध प्रति छे. त्रीजो परिच्छेद धरावतां शेष पानां अलभ्य होई तेना लेखक तथा लेखनसमय विषे कोई स्पष्ट निश्चय थतो नथी. आम छतां तेनी लखावट जोतां ते १६मा सैकामां लखाई होय तेवू अनुमान थई शके तेम छे. १० पानांनी ते प्रतिमां ४) पत्र नथी, अने पाने पाने अनेक उपयोगी टिप्पणो लखेला जोवा मळे छे. झांखी जेरोक्स प्रतिकृतिमां ते टिप्पणो उकेलवां जो के विकट छे. लींबडी भंडारमा क्र. ५४ तरीके ते प्रति नोंधायेली छे. उपरोक्त बन्ने प्रतिओनी जेरोक्स नकल वर्षों पूर्व प्राप्त थयेली. उक्त बन्ने भण्डारोना कार्यवाहकोनो आभार मानुं छु. . 'प्रमाणसार नुं सम्पादन करवानी भावना घणां वर्षोथी मनमां हती. केटलांक वर्ष पूर्वे स्वर्गस्थ परमविदुषी अने चारित्रसम्पन्न साध्वी श्री पूर्णभद्राश्रीजीने, प्राचीन साहित्यना अध्ययन-संशोधनमां रस जागृत थतां, आ ग्रन्थनी प्रतिलिपि करवानुं कार्य तेमने सोंप्यु हतुं. पोतानी केन्सरग्रस्त नाजुक स्थितिमां पण तेओए आनी प्रतिलिपि स्वहस्ते करेली. परन्तु सम्पादनकार्य हाथ पर लेवाय ते पूर्वे ज तेमनो कालधर्म थयो, तेथी आ कार्य आम ज पडी रह्यं हतुं, जे वर्षों बाद आजे, नवेसरथी प्रतिलिपि-लेखन तथा सम्पादन पूर्वक अत्रे रजू थाय छे. भावनगरनी प्रतिना आधारे वाचना तैयार करी छे, अने लींबडीनी प्रतिमांथी पाठान्तर तथा टिप्पणो नोंध्यां छे. 'नमः परमगुरुभ्यः श्रीजिनराजसूरिभ्यः ।। ब्रूमः श्रिये तं वरिवस्य सार्वं रहस्यमुद्दिश्य विशेषदृष्टीन् । स्पष्टाष्टकर्मप्रकृतीविजित्य जग्राह योऽनन्तचतुष्टयं स्राक् ॥१॥ तर्कान्तविद्यां समवेक्ष्य जैनतीर्थान्यपि क्षोणिभुजां सभाश्च । स्वान्तं यदाशान्तरसान्तरासीन्मुदा तदाऽयं विहितोऽस्ति गुम्फः ॥२॥ अजिह्मवाग्ब्रह्मवशात् प्रमाणसारप्रबोधाख्यमधीत्य गुम्फम् । अखर्वगर्वान् प्रतिवादविद्यामुद्रार्थिनो दिग्विजये जयन्तु ॥३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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