Book Title: Munishwar suri krut Pramansar Author(s): Shilchandrasuri Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 1
________________ श्रीमुनीश्वरसूरिकृत प्रमाणसारः ॥ सं. विजयशीलचन्द्रसूरि 'जैन तर्क'ने विषय बनावीने रचायेलो आ लघुग्रन्थ छे. भाषा सरस छे, अने रजूआत जाणे आकाशमा उड्डयन थई रह्यं होय तेवी छे. बे वाक्यो के बे युक्तिओ के बे मुद्दाओनी वच्चेनुं वाक्य, युक्ति, मुद्दो वाचके भणनारे जाते ज योजी-समजी लेवानो रहे छे. घणीवार तो एक विषयन निरूपण करतां क्यारे बीजा विषयमा कर्ता सरी पडे छे ते पण कळवार्नु कठिन बनी जाय छे. कर्तानो मुख्य आशय, वाद-विवादमां सामा पक्षने परास्त करवानी के विजय प्राप्त करवानी कुशलता हांसल करवानी रीत दर्शाववानो छे, जे ग्रन्थारम्भे लखेला तृतीय पद्यमां तेमणे ज स्पष्ट कर्यु छे. ए समय पण दार्शनिक-धार्मिक वादविवादनो हतो, एटले आवी रचनाओ घणी आदेय बनती होय तो ते संभवित छे. आ ग्रन्थ त्रण परिच्छेदोमां वहेंचायो छे. प्रथम परिच्छेदमां प्रमाणना स्वरूपनी चर्चा छे. परन्तु अन्य ग्रन्थोमां जेम प्रथम अन्य-अन्य दर्शनोने मान्य एवा 'प्रमाण स्वरूप'नुं निरूपण थाय, अने पछी जैन दृष्टिए ते तमामनुं साथे के क्रमशः खण्डन करवापूर्वक जैनसम्मत 'प्रमाणस्वरूप' प्रतिष्ठित थाय, ते पद्धति आ ग्रन्थमां जोवा नथी मळती. आमां तो कर्ताने बोलता बोलता जे पळे जे मुद्दो के युक्ति मनमां ऊगे, तेनुं प्रतिपादन, पूर्वापरनो सम्बन्ध जळवाय छे के केम तेनी चिन्ता राख्या विनाज, तेओ निरूपतां जाय छे. रमतियाळ तेमज बोलचालनी भाषामां लखी रह्या होय तेवू अनुभवाय. शक्य छे के ग्रन्थकार पोते कोई गम्भीर वाद-विवादमांथी पसार थया होय अने तेना परिपाकरूपे आ अन्योने मार्गदर्शक रूपरेखात्मक ग्रन्थरचना तेमणे सर्जी होय. द्वितीय परिच्छेदमां प्रमाणोनी संख्या वगेरे प्रमाण-सम्बद्ध बाबतोनी विचारणा थई छे. तो त्रीजा परिच्छेदमा छ दर्शनोनी व्यवस्था अर्थात् स्वरूप परत्वे चर्चा छे. 'षड्दर्शनसमुच्चय'नो आभास थाय, पण वस्तुतः तेवू नथी. अहीं तो दरेक वाते ग्रन्थकार खण्डनना लडायक मिजाजमां ज होवानुं जणाई आवे छे. एकंदरे जोतां ग्रन्थ भाषा-शैलीनी रीते सरल लागवा छतां जरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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