Book Title: Muni Ki Raksha
Author(s): Moolchand Jain
Publisher: Acharya Dharmshrut Granthmala

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Page 5
________________ राजभवन को लौटते हुए एक मन्त्रीने धृष्टतापूर्वक कहा... पृथ्वीनाथ। ये मुनि मौन अन्य मन्त्री भी उस मन्त्री के स्वर से स्वर मिलाते हुये बोलेधारण किये हैं.लगता है आपकी विद्वत्तासे चिन्तित हाँ नरेश? यदि ज्ञान होता तो ये अवश्य होकर मौन बन गये हैं ही आपसे या हमसे किसी विषय पर ताकि पोल नहीं रतुलने वार्ता करते। पाये। महाराज कोई उपयुक्त उत्तर देते इसके पूर्व ही एक अन्य मंत्री व्यंग से बोला... महाराज देरिवये एक साधुनगर की ओर से इसी तरफ आ रहा है, यह उनमें से एक है। लगता है अभीअभी भोजन किया है इसलिए इसका पेट बैल के पेट की तरह फूलपड़ा है। महाराज श्रीबर्मा चाहते तो चारों मन्त्रियों की रवाल खिचाकर भूस भरा सकते थे पर वे ऐसे अज्ञानियों को समाप्त करने की इच्छा नहीं ररवते थे, उन्हें झान-प्रकाश प्रदान करयोग्य धार्मिक बनाना चाहते थे, क्योंकि उनमें अंतरंग वात्सल्य भान सदा बना रहता था। मन्त्रियों की बात पर वेकुचकहे कि नगर से आते मुनि श्री भुतसागर जी उनके निकट आ पहुंचे। श्रुतसागर जी गुरु की निषेध-आज्ञा से पहिले ही चर्या को निकले थे अतः मौन धारण नहीं किये थे। चारों मन्त्रियों ने उनसे एक के बाद एक कई प्रश्न किये जिनके उत्तर सम्त युतसागर जी ने सहजता से दे दिए, परन्तु श्रुतसागरजी के पहले प्रश्न पर ही सभी मन्त्री बगलें झांकने लगे। तब मुनिराज - अपने प्रश्नका उत्तर समझाकर उपवन की ओर बढ़ गये। मंत्रिगण अपने को हारा हुआ अनुभव कर रहे थे। राजा श्रीबर्मा ने उन चापलूसों पर कोई दोषारोपण नहीं किया,मन ही मनक्षमाकर दिया

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