Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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अनेकान्तवाद : सिद्धान्त और व्यवहार
ix की नहीं है, इसी से वस्तु का स्वरूप निश्चित होता है। वस्तुतत्त्व की अनैकांतिकता
वस्तु या सत् की परिभाषा को लेकर विभिन्न दर्शनों में मतभेद पाया जाता है। जहाँ औपनिषदिक और शांकर वेदान्त दर्शन 'सत्' को केवल कूटस्थ नित्य मानता है, वहाँ बौद्ध दर्शन वस्तु को निरन्वय, क्षणिक और उत्पाद-व्ययधर्मा मानता है। सांख्य दर्शन का दृष्टिकोण तीसरा है। वह जहां चेतन सत्ता पुरुष को कूटस्थ नित्य मानता है, वहीं जड़ तत्त्व प्रकृति को परिणामी नित्य मानता है। न्याय-वैशेषिक दर्शन जहाँ परमाणु, आत्मा आदि द्रव्यों को कूटस्थ नित्य मानता है वहीं घट-पट आदि पदार्थों को मात्र उत्पादव्ययधर्मा मानता है। इस प्रकार वस्तुतत्त्व की परिभाषा के सन्दर्भ में विभिन्न दर्शन अलगअलग दृष्टिकोण अपनाते हैं। जैनदर्शन इन समस्त एकान्तिक अवधारणाओं को समन्वित करता हुआ सत् या वस्तुतत्त्व को अपनी अनैकान्तिक शैली में परिभाषित करता है।
जैनदर्शन में आगम युग से ही वस्तुतत्त्व को अनैकान्तिक शैली में परिभाषित किया जाता रहा है। जैनदर्शन में तीर्थंकरों को त्रिपदी का प्रवक्ता कहा गया है। वे वस्तुतत्त्व को "उप्पनेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा' इन तीन पदों के द्वारा परिभाषित करते हैं। उनके द्वारा वस्तुतत्त्व को अनेकधर्मा और अनैकांतिक रूप में ही परिभाषित किया गया है। उत्पत्ति, विनाश, ध्रौव्यता आदि इन विरोधी गुणधर्मों में ऐसा नहीं है कि उत्पन्न कोई दूसरा होता है, विनष्ट कोई दूसरा होता है। वस्तुत: जैनों के अनुसार जो उत्पन्न होता है वही विनष्ट होता है और जो विनष्ट होता है, वही उत्पन्न होता है और यही उसकी ध्रौव्यता है। वे मानते हैं कि जो सत्ता एक पर्यायरूप में विनष्ट हो रही है वही दूसरी पर्याय के रूप में उत्पन्न भी हो रही है और पर्यायों के उत्पत्ति और विनाश के इस क्रम में भी उसके स्वलक्षणों का अस्तित्व बना रहता है। उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र (५.२९) में "उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकं सत्' कहकर वस्तु के इसी अनैकान्तिक स्वरूप को स्पष्ट किया है।
प्राय: यह कहा जाता है कि उत्पत्ति और विनाश को सम्बन्ध पर्यायों से है। द्रव्य तो नित्य ही है, पर्याय परिवर्तित होती है, किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि द्रव्य, गुण और पर्याय विविक्त सत्ताएं नहीं हैं, अपितु एक ही सत्ता की अभिव्यक्तियाँ हैं। न तो गुण और पर्याय से पृथक् द्रव्य होता है और न द्रव्य से पृथक् गुण और पर्याय ही। इसीलिए तत्त्वार्थसूत्र (५.३७)' में 'गुणपर्यायवत् द्रव्यम्' कहकर द्रव्य को परिभाषित किया गया है। द्रव्य की परिणाम जनन शक्ति को ही गुण कहा जाता है और गुणजन्य परिणाम विशेष पर्याय है। यद्यपि गुण और पर्याय में कार्य-कारण भाव है, किन्तु यहाँ यह कार्य-कारण भाव परस्पर भिन्न सत्ताओं में न होकर एक ही सत्ता में है। कार्य और
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