________________
( 60 )
पड़ता है। जैन धर्म के अनुसार आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि काल से है । अनादिकाल से आत्मा के साथ राग-द्व ेष लगा हुआ है, लेकिन जिस प्रकार खाम में माटी और सोना मिले होने पर भी उसे प्रयोगों द्वारा अलग-अलग किया जा सकता हैं । कर्म और आत्मा अलग होने से आत्मा अपने असली शुद्ध स्वरूप में आ जाती है । इस तरह बादशाह ने सूरिजी के मुख से देव, गुरु, धर्म और आत्मा के विषय में ज्ञान प्राप्त कर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की ।
अगले दिन बादशाह ने अहिंसा और दया पर सूरिजी से चर्चा की अहिंसा के बारे में बताते हुए सूरिजी ने कहा अहिंसा जैन धर्म का मूल तत्व है जो कोई प्राणी हिंसा करता है, वह नरक में पड़ता हैं । चार कारणों से जीव नरक योग्य कर्म बांधता है | महारम्भ, महापरिग्रह, पंचेन्द्रिय वध और मांसाहार | हिंसा अथवा मांसाहार तो दूर उससे सम्बन्धित पुरुष भी जैन शास्त्रों में पाप का भोगी बताया गया है । मारने वाला, मांस खाने वाला, पकाने वाला, बेचने वाला, खरीदने वाला, अनुमति देने वाला तथा दाता ये सभी घातक हैं ।
मनुस्मृति में भी लिखा है कि "सम्मति देने वाला, काटने वाला, मारने बाला, मोल लेने और बेचने वाला, पकाने वाला, लाने वाला और खाने वाला ये घातक होते हैं अतः हे राजन् मन वचन और काया में से किसी एक के द्वारा भी किसी प्रकार के जीवों की हिंसा न हो ऐसा व्यवहार ही संयमी जीवन है । नित्य अहिंसा व्यापार बर्तना उचित है। ज्ञानी के ज्ञान का सार यह है कि वह किसी की हिंसा नहीं करता ।
" एक यह भी विचार करने की बात है कि एक पक्षी को मारने वाला एक ही जीव का हिंसक नहीं हैं किन्तु नेक जीवों का हिंसक है, क्योंकि जिस पक्षी की मृत्यु हुई है यदि वह स्त्री जाति हैं और उसके छोटे छोटे बच्चे हैं तो वे मां के मर जाने से क्या जिन्दा रह सकते हैं, कभी नहीं । एक और सोचने की बात है कि खुदा दुनियां का पिता है तब दुनियां के बकरी, ऊंट, गौ वगैरह सभी प्राणियों का वह पिता हुआ तो फिर वह खुदा अपने किसी पुत्र के मारने में खुश किस तरह होगा ? अगर हो तो उसे पिता कहना उचित नहीं । इसलिए बकरा, ईद के रोज जो मुसलमान लोग हिंसा करते हैं, कितना अत्याचार करते हैं। "2
1. अनुमन्ता विशसिता निहन्ता, क्रय विक्रयी ।
संस्कर्ता, चोपहर्ता, च खादकश्चेति घातकः
मनुस्मृति - पण्डित रामेश्वर भट्ट अध्याय 5 श्लोक 51 2. जेंगदगुरूहीर - मुमुख भव्यानन्द विजय पेज 73
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org