Book Title: Mugal Samrato ki Dharmik Niti
Author(s): Nina Jain
Publisher: Kashiram Saraf Shivpuri
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शासन की सुव्यवस्था में व्यस्त रहते थे उसी तरह ये आचार्य भी जैन धर्म और जन संघ की रक्षा और वृद्धि के प्रयत्न में आजीवन दत्तचित्त रहते थे अपने धर्म और समाज की उन्नति और प्रतिष्ठा के निमित्त ये राजाओं के दरबार में उपस्थित होते थे। उन्हें प्रतिबोधित करते थे। और बदले में सिर्फ प्राणी रक्षा और अहिंसा का उनसे प्रचार और पालन करवाते थे । अधर्मी और अत्याचारी द्वारा सताये जाने वाले प्रजाजनों और धर्मनिष्ठ मनुष्यों की रक्षा करवाते थे। धर्म स्थानों की पूजा और पवित्रता का सुप्रबन्ध करवाते थे।
आचार्य हीरविजयसूरि और विजयसेन सूरि ने बादशाह अकबर पर जो प्रभाव डाला वह तो हमें विदित हो ही गया है यहां हम आचार्य विजयदेवसूरि और जहांगीर के बारे में देखेंगे।
हीरविजयमूरिजी के समय में ही उनके शिष्यों में कुछ विचार भेद हो जाने से विरोध पैदा हो गया था जो कि विजयदेवसूरि के समय में ज्यादा बढ़ गया। गच्छ के इस विरोधी वातावरण का प्रतिबोध जहांगीर के दरबार तक जा पहुंचा। हीरविजयसूरि के शिष्यों में से कइयों के साथ जहांगीर का बचपन से ही परिचय या वह अपने पिता के धर्मोपदेश के साथ वाली नीति का पालन भी करना चाहता पा इसलिए जब बादशाह ने सुना कि हीरविजयसूरिजी के शिष्य आपस में अनबन हो जाने के कारण परस्पर एक दूसरे के विपक्षी बन रहे हैं जिनविजयदेवसूरि को हीरविजयसूरि के पट्टधर विजयसेनसूरि ने अपना पट्टधर घोषित किया है उनके बारे में कई शिष्य अपना विरोध व्यक्त कर रहे हैं तब बादशाह के मन में विजयदेवसूरि से मिलने की उत्कण्ठा पैदा हुई (इस समय भानुचन्द्र उपाध्याय बादशाह के पास मांडू में ही थे। उन्होंने भी बादशाह से इस घटना की चर्चा करते हुए आग्रह किया था कि वे विजयदेवसूरि को समझावें) बादशाह इस समय मांडू में था और विजयदेवसूरि का चातुर्मास खम्भात में था बादशाह ने मांडू जैन श्रीसंघ के नेता चन्द्रपाल को बुलाया और एक फरमान लिखकर, जिसमें सूरिजी से दरबार में आने का निवेदन किया गया था, खम्भात भेजाः जैसे ही सूरिजी को फरमान मिला, उन्होंने खम्भात से बिहार कर दिया और आश्विन सुदी तेरस सम्बत 1674 सन् 1617) को मांडू पहुंचे । चन्द्रपाल ने बादशाह को समाचार दिया कि जिनविजयदेवसूरि के दर्शनों के लिए आप लालायित थे वे मांडू पधार चुके हैं। अगले दिन अर्थात् आश्विन शुक्ला चतुर्दशी को सूरिजी बादशाह के दरबार में
1. विजयदेव-माहात्म्यम्-श्री श्रीवल्लभपाठक सर्ग 17 पद 10
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