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पंचम अध्याय
जहाँगीर का जैन सन्तों से सम्पर्क
1. उपाध्याय भानुचन्द्रजी
भानुचन्द्रजी जब से अकबर के सम्पर्क में आये लगातार उसके दरबार में रहे इस कारण जहांगीर उनसे परिचित था ही। अकबर के देहान्त के बाद भानुचन्द्र जी आगरा गये और जहांगीर से उन परवानों का, जो अकबर से लिए थे, अमल कायम रखने के लिए हुक्म लिया था।
जब बादशाह जहांगीर मांडवगढ़ गया उस समय वहां विजयसे नसूरि के शिष्य नन्दिविजय थे, वे जहांगीर से मिलने गये उन्हें देखकर जहांगीर को भानुचन्द्र जी का स्मरण हो आया उन्होंने नन्दिविजयजी से भानुचन्द्रजी को बुलाने का निवेदन किया और स्वयं एक मेवडा को फरमान देकर अहमदाबाद के सूबेदार मकरूबखां के पास भेजा। भानुचन्द्रजी उस समय सिरोही में थे, जैसे ही उन्हें बादशाह के निमन्त्रण की सूचना मिली तो उन्होंने मांडवगढ़ के लिये बिहार कर दिया। भानुचन्द्रजी को देखते ही बादशाह बहुत प्रसन्न हुए उनका यथोचित सत्कार कर अपने पुत्र क पढ़ाने का निवेदन किया:
1. मिल्या भूपनई भूप आनन्द पाया,
मलइ तुमे भलई अहीं भाणचन्द आया, तुम पसिथिई मोहि सुख बहूत होवइ,
सहरिआर भणवा तुम वाट जोवइ । पढावो अहम पूतकु धर्मवात
जिउ अवल सुणता तुझ पासितात भाणचन्द कहीम तुमे हो हमारे
___ सबही थकी तुझ हो हम्महि प्या श्रीविजयतिलक सूरिरास-पन्यास दर्शन विजय (एतिहासिक रा संग्रह) श्लोक नं. 1309, 1310
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