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प्रथम दिन की भेंट के अन्त में सूरिजी ने बादशाह को आत्मा के स्वरूप के बारे में बताया कि "आत्मा एक शाश्वत स्वतन्त्र द्रव्य है उपादान के अभाव में इसकी उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती, जिसकी उत्पत्ति नहीं उसका विनाश भी नहीं है । गीता में कृष्ण ने कहा है जो नहीं है, वह पैदा नहीं हो सकता । जो है उसका नाश नहीं हो सकता तस्वदशियों में असत् और सत् का यही हार्द माना है ।
आत्मा का मुख्य लक्षण ज्ञान है । वह किसी भी योनि में ज्ञान व अनुभूति शून्य नहीं होती । ज्ञान एक ऐसा लक्षण है जो इसे जड़ पदार्थों से सर्वथा पृथककर देता है । अपने ही अर्जित कर्मों के अनुसार वह जम्म और मृत्यु की परम्परा में चलती हुई नाना योनियों में वास करती है वह सदैव अमर है उसे कोई नष्ट नहीं कर सकता जैसा कि कृष्ण ने भी कहा हैं-- "जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को उतारकर नवीन वस्त्रों को धारण करता है उसी प्रकार ( आत्मा ) जीणं शरीर
छोड़ती है और नये शरीरों को प्राप्त करती है। आत्मा को शास्त्र नहीं छेव सकते, न उसे अग्नि ही जला सकती है । न उस पर पानी का असर होता है और न ही हवा का अर्थात् पानी उसे आम्र नहीं कर सकता और हवा उसे सुखा नहीं सकती ?
आत्मा तो अपने ही पुरुषार्थ से कर्म परम्परा का उच्छेद कर सिद्धावस्था को प्राप्त कर लेती है जहाँ उसका चिन्मय स्वरूप प्रकट हो जाता है।
आत्मा संकोच विको स्वभाव वाली होती है। उसके असंख्य प्रदेश होते हैं जो सूक्ष्म से सूक्ष्म स्थान में भी समा जाते हैं और फैलने पर सारे विश्व को भी भर सकते हैं । सकर्म आत्मायें शरीर परिमाण आकाश का अवगाहन करती है । हाथी और चींटी की आत्मा समान है अतर केवल इतना ही है कि यह हाथी के शरीर में व्याप्त है और वह चींटी के शरीर में । मृत्यु के बाद हाथी की आत्मा
1. नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः श्रीमद्भगवद् गीता अध्याय 2 श्लोक 16
2. वासंसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहाति मराडपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देहि || मैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः
म चैनं क्लेदयमापो न शोषयति मारुतः । श्रीमद्भगवद् गीता ध्याय 2 श्लोक 22-23
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