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अपनी बात
पूज्य क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी, बाबा भागीरथजी और पं. दीपचन्द्रजी वर्णी ये तीनों महानुभाव जैन समाजमें वर्णित्रयके नामसे प्रसिद्ध हैं। इनका पारस्परिक सम्बन्ध भी बहुत अच्छा रहा है। पूज्य वर्णीजीके सम्बन्धसे सागरमें बाबा भागीरथजी और पं. दीपचन्द्रजी वर्णी सागरकी सत्तर्कसुधातरंगिणी पाठशालामें (जो अब गणेश दि. जैन विद्यालयके नामसे प्रसिद्ध है) सुपरिन्टेन्डेन्ट रह चुके थे। तब उन्हें वहाँका छात्रवर्ग 'बाबूजी' कहा करता था । पीछे वर्णी बन जानेपर भी सागरमें उनका यही 'बाबूजी' सम्बोधन प्रचलित रहा आया और उन्होंने छात्रवर्ग द्वारा इस सम्बोधनका प्रयोग होनेमें कभी आपत्ति भी नहीं की ।
एक बार अनेक त्यागी वर्गके साथ उक्त वर्णित्रयका सागरमें चातुर्मास हुआ। उस समय मैं प्रवेशिका द्वितीय खण्डमें पढ़ता था और मेरी आयु लगभग १३ वर्षकी थी । लगातार चार माह तक सम्पर्क रहनेसे श्री पं. दीपचन्द्रजी वर्णीके साथ मेरी अधिक घनिष्ठता हो गई। पहले उनके साथ वार्तालाप करनेमें जो भय लगता था वह जाता रहा ।
पूज्य वर्णी सारी जैन समाजके श्रद्धा-भाजन हैं। मैंने जबसे होश सम्भाला तबसे मैं बराबर देखता आ रहा हूँ कि उनमें जैन समाजके आबाल-वृद्धकी गहरी श्रद्धा है और वह उत्तरोत्तर बढ़ती ही जाती है। पूज्य वर्णीजी कौन है ? इनमें क्या विशेषता है ? यह सब समझना उस समय ही क्यों, अब भी मेरे ज्ञानके बाहर है। फिर भी वे जब कभी शास्त्रप्रवचनों अथवा व्याख्यानोंमें अपनी जीवनकी कुछ घटनाओंका उल्लेख करते थे तब हृदयमें यह इच्छा होती थी कि यदि इनका पूरा जीवनचरित कोई लिख देता तो उसे एक साथ पढ़ लेता ।
मैंने एक दिन श्री दीपचन्द्रजी वर्णीसे कहा कि 'बाबूजी' आप बड़े पण्डितजी का (उस समय सागरमें पूज्य वर्णीजी इसी नामसे पुकारे जाते थे) जीवनचरित क्यों नहीं लिख देते ? आप उनके साथ सदा रहते हैं और उन्हें अच्छी तरह जानते भी हैं।' एक छोटी कक्षाके विद्यार्थीके मुखसे इनके जीवनचरित लिख देनेकी प्रेरणा सुनकर उन्हें कुछ आश्चर्य-सा हुआ । उन्होंने सरल भावसे पूछा कि तू इनका जीवनचरित क्यों लिखाना चाहता है ? मैंने कहा - 'बाबूजी ! देखो न, जब कभी ये शास्त्रसभामें अपनी जीवन घटनाएँ सुनाने लगते हैं तब दुःखद घटनाओंसे समस्त समाजकी आँखोंसे
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