Book Title: Manav Bhojya Mimansa
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Kalyanvijay Shastra Sangraha Samiti

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Page 521
________________ विरतो मेथुना धम्मा, हित्वा कामे परोवरे । अविरुद्धो असारत्तो, पाणेसु तस थावरे ॥२६॥ यथा अहं तथा एते, यथा एते तथा अहं । अत्तानं उपमं कत्वा, न हनेय्य न घातये ॥२७॥ . (मुत्त निपात पृ० ४५). अर्थ-मैथुन प्रकृति से निवृत्त हो, परम्परागत काम भोगों को छोड़ कर त्रस स्थावर प्राणियों के ऊपर अरक्त द्विष्ट बने और जैसा मैं हूँ वैसे ये हैं, तथा जैसे ये हैं वैसा मैं हूँ इस प्रकार आत्म-सशह मानकर न किसी का घात करे न करवाये। यो न हन्ति न घातेति, न जिनाति न जायते । मित्त सो सब्भूतेसु वेरं तस्स न केनचीति ।। (इति वुत्तक पृ० २०) अर्थ-जो न स्वयं किसी का घात करता है, न दूसरों से करवाता है, न स्वयं किसी को जीतता है, वह सर्व प्राणियों का मित्र होता है, उसका किसी के साथ वैर नहीं होता। तथागतस्स बुद्धस्त, सव्वभूतानुकंपिनो। परियायवचनं पस्स, कैच धम्मापकासिता ।। पापकं पस्सथ चेकं, तत्थ चापि विरज्जथ । ततो रित्त चिचा खे, दुक्खस्सन्तं करिस्सथ ।। . (इति तक पृ० ३०)

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