Book Title: Manav Bhojya Mimansa
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Kalyanvijay Shastra Sangraha Samiti

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Page 552
________________ ( ५०२ .) शरीर निर्वाह के लिये प्रासक्ति तथा मोह रहित होकर भोजन करते थे। सव्वासव परिक्खीणा, महामायी महाहिता । निव्वुता हानि ते थेरा, परित्ता दानि तादिसा ॥२८॥ कुसलानं च धम्मानं, पाय च परिक्खया । सव्वाकार वरूपेतं, लुज्जते जिन सासनं ॥२६॥ पापकानं च धम्मानं, किलेसाश्चयो उतु । । उपद्विता विवेकाय, ये च सद्धम्म सेसकाः ॥६३०॥ अर्थः-सर्वाश्रवमुक्त, महाध्यायी, महाहित कारक, परिमित पदार्थग्राही, ऐसे स्थविर आज कल निवृत्ति प्राप्त कर गये, उक्त प्रकार के बाज नहीं रहे। कुशल धर्मों के तथा प्रजा के नाश होने से आज तथागत का शासन सर्व प्रकार से विरूपता को प्राप्त होकर लज्जित हो रहा है । पापक धर्म तथा क्लेशों का समूह जो सद्धर्म के उपासक शेष रहे हैं, उनके अविवेक का कारण बन रहा है। मत्तिकं तेलं चुण्णं च, उदकासन भोजनं । गिहीनं उपनामेति, आकखंता बहुत्तरं ॥६३७॥ दंत पोणं कपिट्ठच, पुष्फ खादनीयानि च। पिण्डपाते च संपने, अंबे आमलकानि च ॥३८॥ अर्थः-मृत्तिका, तैल, चूर्ण, पानी, आसन, खाद्यवस्तु, अधिक प्राप्ति की इच्छा करते हुए गृहस्थों को देते हैं।

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