________________
1 युवश पार “किरातात्रु नाय क अनवाद किया तव कालिदास और भारवि पर अालोचनात्मक भूमिकाएँ भी लिखी। इस प्रकार की भूमिका लिखने की प्रेरणा पश्चिमीय साहित्य के अध्ययन का फल जान पटती है। कालिदास पर हिन्दी मे काई पुस्तक नही लिग्बी गई थी अतएव उन्होंने 'कालिदान और उनकी कविता' प्रकाशित की ।' यह मन् १६०५ में लेकर १६१८ ई. तक लिव गए निवन्धों का संग्रह है । अधिकाश लेग्य १६११-१२ ई० के हैं। _ 'कालिदास और उनकी कविता' का अालोचनात्मक मूल्याकन करने के लिए उन पुग को ध्यान में रग्ब लेना होगा । उस समय पाठकों की दो कोटिया थी । एक मे तो साधारण जनता कालिदाम मे नितान्त अनभिज्ञ थी और दूसरी में वे पंडित थे जो 'कौमुदी के कीड़े और 'महाभाष्य के मतंगज' थे । वे कालिदास का एक भी शब्दस्खलन नही सह सकत थे और उसे महो सिद्ध करने के लिए पाणिनि, पतंजलि, कात्यायन की भी उक्तियां पर हरताल लगाने की चेष्टा करते थे ।२ समालोचको और ममालोचनाश्रो की दशा भी शोचनीय थी । यदि किसी सम्पादक ने किमी अालोचक की आलोचना अप्रकाशनीय ममझ कर न छापी तो उसकी समालोचना होने लगी। यदि किमी पत्र ने किमी अन्य पत्र के साथ विनिमय नहीं किया ता सम्पादक पर ही वाग्बागी की वर्षा होने लगी। फिर उम ममालोचना में उमके बरद्वार, गादीघाई, नौकरचाकर, वस्त्राच्छादन तक की ग्बबर ली जाने लगी । पाश्चात्य विद्वानों द्वारा की गई भारतीय पुरातत्वमंबन्धी खोज ने हिन्दी-जनता को भी अाकृष्ट किया । ऐतिहासिक अनुमंधान के नवोन उपनयन को पाकर टुटपुजिए ममालोचको ने कालिदामादि का कालनिर्णय करके यश लूट लेने का उपक्रम किया। इस क्षेत्र में भी पदार्पण करके अज्ञान का निगन योग ज्ञान का प्रचार करना द्विवेदी जी ने अपना कर्तव्य ममझा । 'कालिदाम और उनकी कविता' के प्रारंभिक बहत्तर पृष्ठ उनकी गवेषणात्मक और ठोस अालोचना के मानी ह । हममे उन्होंने अनेक प्राच्य अोर पाश्चिमान्य विद्वानो के मनों का उल्लेब, उनकी परीक्षा और अार अपने मन की युक्तियुक स्थापना की है । 'नेपधचरितचर्चा' ग्रार विक्रमाकदेवचरित चना में द्विवेदी जी भस्कृत-माहित्य के ऐनिहासिक पन्न के अन्वपी हाकर प्रकट हुए थे। प्रस्तुत पुस्तक में उनका बह रूप अपने चरम विकास को ग्राम हुआ है । श्राद्योपान्त ही सूक्ष्म श्रीन्यपन और गभीर चिन्तन की छाप है । 'कालिदाम की दिखाई हुई प्रचीन भारत की एक मन्तक' में अालोचक द्विवेदी ने अतीत और वर्तमान की विशेषताओं को लेकर कालिदास का
१. 'कालिदास और उनकी कविता', निवेदन ।
, प १२१
११२