Book Title: Mahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Author(s): Udaybhanu Sinh
Publisher: Lakhnou Vishva Vidyalaya

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Page 262
________________ म यन्त्र गराशश कर पद का परमन न पुन त ल न श ााद के निर पा की प्रायोपान्न काटछॉट, सशाथन और पग्विन करके द्विवेदी जी ने उन्ह पठनीय और ठोस बनाया । उदाहरणार्थ 'इत्यादि की आत्मकहानी' क लेग्बक यशोदानन्दन अग्बौरी ने भाषा-त्रुटियो के अतिरिक्त वस्तु के संग्रह और त्याग में भी अकुशलता दिग्बन्लाई थी जिमके कारण रचना का निवन्ध-मौन्दय नष्ट होगया था । द्विवेदी जी ने अन्य संशाधनो के साथ उसकी उपमा में लिम्बित यूर अवच्छेद को ही निकाल दिया। वे कटेश नारायण तिवारी की एक अशरफी की अात्मकहानी', सत्यदेव के राजनीति-विज्ञान, पर्ण सिह के 'श्राचरण की सभ्यता' तथा 'मजदूरी और प्रेम,' रामचन्द्र शुक्ल के 'कविता क्या है ? और 'साहित्य' आदि निबन्धो में अन्यन्त शिथिलता होने के कारण उनके निवन्धत्व में दोष आ गया था। द्विवेदी जी ने उनका संस्कार और परिष्कार करके उन्हे निवन्ध का श्रादर्शरूप दिया । रीति और शैली लेखक की भाषा की रीति और शैली का वास्तविक दर्शन उमके निबन्धी में ही होता है । क्योकि नाटक, उपन्यास, कहानी अादि की अपेक्षा वह निबन्धों में अधिक स्वच्छन्दता पूर्वक लेग्वनी चत्ताकर अपने व्यक्रिय और प्रवृनि की निबन्ध अभिव्यजना कर सकता है। द्विवेदी-युग की भाषा और शैली का रूप भी इन्ही निवन्धी मे विशेष निखरा । द्विवेदी जी ने गहाभाषा का परिष्कार और संस्कार भी इन्ही निबन्यों के द्वारा किया। यह बात नागरी प्रचारिणी मभा के कलाभवन में रक्षित 'मरस्वती' की हस्तलिखित प्रतियों से स्पष्ट प्रमाणित हं । 'भापा और भाषा-सुधार' अध्याय में द्विवेदी जी की भाषा की रीति और शैली की विवेचना करते समय यह कहा गया था कि उनकी प्रौद रचनाओं में श्राद्योपान्त कोई एक ही गति या शैली नहीं है । उनमे मभी गतियों और शैलियों के वीज विद्यमान थे जो आगे चलकर उनके यग के गद्य-लेम्बको की कृतियों में विक्रमित हुए । द्विवेदी जी ने अपने यम के लेव को की रीति और शैली का भी परिमार्जन किया था। निम्नाकित उद्धरण उनके शेती-मुधार-कार्य को और भी स्पष्ट कर देंगे : मंशोदित (क) गमए वस्त्र की पूजा छोडो । गिरज गरुये वस्त्रा की जा मी करते की घन्टी क्यो मुनते हो ? रविवार हो ? गिरने की घंटी क्यो सुनते हो ? रविययों मनाने हो ? पाँच वक्त की वार क्यों मनाते हा ? पाच वक्त की नमाज निमाज किस काम की ? दोनो क्या पढ़ते हो, त्रिकाल सन्ध्या क्यो करते १. 'सरस्वती', १६०१ ई० २. द्विवेदी जी द्वारा संशोधित उपयुन तथा अन्य निबन्ध काशी नागरी प्रचारिणी सभा के कला भवन में रचिव सरस्वती की हम्नलिखिन प्रतियों में देने जा सकते हैं

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