Book Title: Mahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Author(s): Udaybhanu Sinh
Publisher: Lakhnou Vishva Vidyalaya

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Page 270
________________ परिचय , अार भापाभूपया ,२ नामक पुस्तक प्रकाशित हुई । द्विवदी जी के कठोर अनुशासन के कारण नायक-नायिका भेद और नख शिख-वर्णन पर अधिक ग्रन्थ-रचना नही हुई। प्रारम्भ में विद्याधर त्रिपाठी ने 'नवोडादर्श' ( १६०४ ई०) और माधवदाम सोनी ने 'नस्त्र शिस्त्र' ( म० १६६२ ) लिखे। आगे चलकर केवल जगन्नाथप्रसाद भानु की 'रसरत्नाकर' १६०६ ई० और नायिका भेद-शकावली' ( १९२५ ई.) को छोडकर इस विषय पर कोई अन्य उल्लेखनीय रचना नहीं हुई ! द्विवेदी-युग में लिन्वित अधिकाश साहित्य शास्त्र-ममीक्षाएँ ठोस और गम्भीर नहीं है । रामचन्द्र शक्ल, गुलाबराय, श्यामसुन्दरदास, पदुमलाल मुन्नालाल बख्शी आदि कुछ ही लेखको ने साहित्य मिद्धान्तो का यूक्ष्म और विशद् विवेचन किया। सुधाकर द्विवेदी ने अपने 'हिन्दी साहित्य' लैग्व में संस्कृत की महायना से साहित्य की व्याख्या की और मादित्य को सागोपांग काव्य बतलाया । माहित्य के विविध पक्षो का विस्तृत विवेचन न करके उन्हाने उसके रूप का एक स्थूल लक्षण मात्र बताया--- "काव्य के नाटक, अलंकार जितने अंग हैं मवों के सहित होने से साहित्य कहा जाता है ।"3 अपने उमी लेख में उन्होंने राजशेखर, मम्मट आदि संस्कृत-प्राचार्यों का उद्धग्गा देते हुए काव्य की थोथी परिभाषा की- “जो देश की भाषा हो उमी मे कुछ विशेष अर्थ दिखलाने को जिससे उस देश के सुनने वालों को एक रम मिल जाने से श्वशी हो, काव्य कहते हैं ।" काव्य को किमी देश-भाषा और उमी देश के मुनने वालो तक सीमित कर देने में अव्याप्ति है। 'रस', 'खुशी' आदि शब्दो का ढीले ढाले अर्थ में प्रयोग करने से वाक्य की गम्भीरता नष्ट हो गई है और वह अभीष्ट अर्थव्यंजना करने में असमर्थ हो गया है । गोविन्दनारायण मिश्र ने द्वितीय साहित्य-सम्मेलन के अवसर पर अपने सभापति के भाषण मे लच्छेदार और श्रालंकारिक भाषा में साहित्य का काव्यमय चित्र ग्वीचा । उन्होंने उसकी कोई चिन्तनाजनक परिभाषा नहीं की। गोपालराम - - १. रामशंकर त्रिपाठी पं० १९८५। २ ब्रजरत्नद्राम । ३. प्रथम हिन्दी-साहिन्य-सम्मेलन का कार्य-विवरण, भाग २, पृ. ३४ । ४. पग उद्धरण निम्नाकित है:___कोई कहते है कि माहित्य स्वर्ग की सुधा है, यह किमी व्यक्ति विशेष की सम्पत्ति नहीं, रचयिता की भी निज की वस्तु नहीं, यह देवताओं की अमृतम्ची रसीली वाणी है। कोई कहते हैं स्त्री पुरुषो की विचार-शक्ति को पुष्ट कर जान और विवेक बुद्धि का गठ जोडा आध, सार्वजनिक कर्तव्य बुद्धि और मब सद्गुणो सहित शीत्त सम्पन्न बनाने के साथ ही मनुष्यों के मन को सर्वोत्कृष्ट गार्व अलंकारों से अलंकृत कर अपूर्व रसास्वादन का अानन्द उपभोग कराने के द्वितीय मगधा का नाम भी मागिल है मैं मी रन विद्वानों के स्वर में अपना -- - - - -

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