Book Title: Mahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Author(s): Udaybhanu Sinh
Publisher: Lakhnou Vishva Vidyalaya

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Page 234
________________ ! ८५ मन्यासिनी की भांति निर लकार कि तु मास्वमा उ काव्या में पग-पग पर चित्रमयी कवि कल्पना की ऊत्री उडान हे । द्विवेदी-अंग के हिन्दी गद्यगीतों में कल्पना की ऊंची उडान न होते हुए भी मरलता, लाक्षणिक्ता और मृर्ति मना या प्रतीकात्मकता का इतना मुन्दर ममन्वय है कि वे पाठको के हृदय को महज ही मोह लेते हैं। इन गद्यकाव्या की द्विकलात्मकता इनकी एक प्रमुख विशेषता है। इनमें गद्य भाषा की छन्दहीनता, वाक्यविन्याम अोर व्याकरण संगति है, परन्तु माय ही पद्य की मी लय और काव्यमय उपस्थापना भो है। द्विवेदी जी ने अपने पवानुवादा में मकन के द्र नबिलम्बित, शिव रिंगो, स्वन्धग, इन्द्रबत्रा, उपेन्द्रबत्रा श्रादि अनेक वृत्ती और अपनी मौनिक कविताओं में वर्णिक छन्दों का प्रयोग किया था। उनके श्रादर्श और उपदेश२ ने उस यग के अन्य कवियों को भी प्रभावित किया ! पंडित अयोध्यामिह उपाध्याय ने अपना प्रिय प्रवास' श्राद्योपान्त मस्कृत वृत्ता मे लिग्या । संस्कृत वृत्तो का निर्वाह करने में कही कहीं कवियों को अत्यन्त कठिनाई हुई । कहीं नो उन्हें चरण के अन्तिम लधु को दीर्घ का रूप देना पड़ा, और कहीं वे मंयुक्र वर्ण के पूर्ववर्ती लघुस्वर को गुरु मानने के लिए विजश हुए । इस प्रकार के प्रयोग बार बागा भट्ट ने अपने यचग्नि' को भूमिका में इस प्रकार की कामयदत्ता' की प्रशंसा मीका 'कवीनामगलहों नूमं वासवदनया!'' १ "जब मै गेता हूँ तब तुम घोर अट्टहान कर मरे गेने का उपहास करते हो, जब हैमता हूँ, तुम्हारी यादों में ग्रामू छलछला पाते हैं-यह वैपरीत्य क्यों ? हे स्वामिन् ! तुम्हारे मम्मुम्ब क्या मेरे रोने और हमने का कोई मूल्य नहीं है ?" क्षमायाचना'.."शान्तिप्रिय द्विवेदी प्रभा । जन. १९२५ ई० पृष्ठ ७३ । २. "वाहा, चौपाई, सोरठा, घनाक्षरी, छप्पय और सवैया श्रादि का प्रयोग हिन्दी में बहुत हो चुका । कवियों को चाहिए कि यदि वे लिख सकते है तो इनके अतिरिन और भी छन्द लिया करे ।" ." रसजन, पृ. ३। ३ यथा---"योड़े दुशाले अनि उपण अंग. धार गरू वस्त्र हिए उमंग।" -सरस्वती. मई, ११०१३० ४ उदाहरणार्थ (क) जब देवव्रत अष्टम बालक । द्विवेदी जी, कविता-कलाप, 'गंगा-भीष्म । (स) भानन्द प्रिय मित्र के उदय से पाते सभी जीव हैं पूजा में रत है ममस्त जगत प्रात्साह पाहाद से

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