Book Title: Mahavir Jain Vidyalay Amrut Mahotsav Smruti Granth
Author(s): Bakul Raval, C N Sanghvi
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 370
________________ अमृत महोत्सव स्मृति ग्रंथ 347 48. गुरु वल्लभ का शैक्षणिक दृष्टिकोण - आचार्य श्री विजय इन्द्रदिन्न सूरीश्वरजी ... जैन धर्म और दर्शन में ज्ञान को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। सर्वप्रथम ज्ञान है और उसके बाद अहिंसा है। क्योंकि बिना ज्ञान के अहिंसा को भी कैसे समझ सकेंगे। और जिसे समझ नहीं पाएंगे उसका आचरण भी कैसे हो सकेगा। इसलिए सर्वप्रथम ज्ञान के द्वारा अहिंसा को समझना पड़ेगा। समझकर ही अहिंसा का पालन हो सकता है। ऐसी स्थिति में ज्ञान का महत्त्व निर्विवाद रूप से हो जाता है। ज्ञान आत्मा का लक्षण है। जीव ज्ञान के प्रकाश से परिपूर्ण है। जब जीव पर लगे हुए कर्म दूर हो जाते हैं तब आत्मा केवल-ज्ञान मात्र-ज्ञान के आलोक से जगमगा उठता है। आत्मा के पूर्ण अज्ञान का नष्ट हो जाना उसके पूर्ण ज्ञान का प्रकट होना है। ज्ञान की परिपूर्णता में आत्मा की परिपूर्णता है और ज्ञान की अपूर्णता में आत्मा की अपूर्णता है। .. जीव चेतनामय है। यह चेतना और कुछ नहीं ज्ञान ही है। यह ज्ञान जीव से कभी अलग नहीं होता। जब जीव निगोद में रहता है तब भी उसके ज्ञान की एक सूक्ष्म किरण तो प्रकाशित ही रहती है। चाहे आत्मा पर कितने ही कर्म लग जाए, चाहे वह कितने ही अज्ञान के अंधकार से भर जाए तब भी वह चेतना-रहित नहीं होता। अवसर आने पर जीव की वह चेतना विराट बनती है। व्यक्ति की समस्त साधना का लक्ष्य आत्मा की उस सूक्ष्म ज्ञान चेतना को विराट बनाना ही है। ' ' . ज्ञान अनंत और असीम है। व्यक्ति के जीवन की सीमा है पर ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। ज्ञान और शिक्षा व्यक्ति को विवेक-चक्षु -

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