Book Title: Mahavir Jain Vidyalay Amrut Mahotsav Smruti Granth
Author(s): Bakul Raval, C N Sanghvi
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
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________________ 364 आखिर... ईश्वरको किस स्वरूप में कैसा मानें ? इस्लाम एवं हिन्दू धर्म आदि धर्मो में ईश्वर को सृष्टिकर्ता आदि प्रकारका मानते हैं। बस ईश्वर को वैसा सृष्टिकर्तादि मानकर शेष अनेक बातों को जोड दी और वैसा स्वरूप बनाकर मानने लगे हैं। बस उसे सुख और दुःख दोनों देनेवाला, लेनेवाला, दाता-हर्ता, भी माना। उसे ही माता-पिता अर्थ में जगत को उत्पन्न करनेवाला मानकर दूसरी तरफ संपूर्ण विरोधी मान्यता भी वही ईश्वर। उसे ही संसार की सर्व क्रियाओं का कर्ता-जनक माना है और दूसरी तरफ उसी ईश्वर को सुख-दुःख दाता, तथा शुभाशुभ कर्मफलदाता भी माना है। वही माता, वही राक्षसी, वही माता और वही वन्ध्या जैसी परस्पर विरोधाभासी विचारणाओंका झमेला बना दिया है। ऐसी अनेक विचारधाराओं को ईश्वर के साथ जोडकर ईश्वर का स्वरूप विकृत, अशुद्ध कर दिया है। ईश्वर की छबि धूमिल कर दी है। उसे भी साफसुथरी नहीं रख पाए। जबकि वास्तव में ईश्वर वैसा है ही नहीं तो फिर जबरदस्ती ईश्वर को वैसा क्यों मान लेना चाहिए। जो जैसा है, जिस प्रकार का है, जिस स्वरूप में है, उसे ठीक वैसा ही, उसी रूप में, उसी प्रकारका जानना ही यथार्थ - सम्यग् वास्तविक ज्ञान है। ठीक वैसा ही मानना सम्यग् दर्शन (श्रद्धा) है। और जैसा है वैसा ही कथन करना - प्रतिपादन करना, वैसी ही यथार्थ प्ररुपणा करना यथार्थोपदेश है। वैसा यथार्थोपदेश करनेवाला ही लोकोत्तर आप्त महापुरुष कहलाता है। ___अत: ईश्वर भी ठीक जैसा है, जिस स्वरूपमय है, जिस प्रकारका . है, ठीक वैसा ही जानना - यथार्थ सम्यग् ज्ञान है, ठीक वैसा ही मानना - सम्यग् (श्रद्धा) दर्शन है। अत: ईश्वर के स्वरूप को तोड़-मरोडकर विकत करके क्यों मानना ? निरर्थक मिथ्यात्व लगता है जिससे मिथ्यात्वी बनते है और कहलाते हैं। दूध जैसा है वैसा सीधा पीना ही प्राकृतिक है, गुणकारी है। परन्तु निंबु का रस डालकर उसे विकृत करना अच्छा नहीं है। वह विकृति है। दोषकारक है। वैसे ही मनुष्य ने अपनी स्वार्थवृत्तियों को, प्राप्ति