Book Title: Mahavir Jain Vidyalay Amrut Mahotsav Smruti Granth
Author(s): Bakul Raval, C N Sanghvi
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 388
________________ 365 अमृत महोत्सव स्मृति ग्रंथ की इच्छा, सुखप्राप्ति की इच्छा और दुःख - निवृत्ति की इच्छा, सुख-दुःख का कारणम्रोत आदि सब कुछ ईश्वर के साथ ही जोड दिया है, इन सब का कारण ईश्वर को ही मान लिया है। बस ईश्वर ही सब बात का मूलभूत कारण है ऐसा मान लिया है। इतना ही नहीं सृष्टि के पृथ्वी, आकाश, पर्वतमाला, समुद्र आदि विशाल-विराट स्वरूप के पदार्थों के पीछे जहां बुद्धि नहीं चली, जो बुद्धि के बाहर की वस्तु लगी, वे सब ईश्वर के साथ जोड दी और उन्हें ईश्वर की बनाई हुई मान ली। बनानेवाला - कर्ता ईश्वर ही हो सकता है। क्योंकि मानवी की शक्ति के बाहर की बात है, और ईश्वर के लिए शक्ति का कोई प्रश्न ही नहीं है। ईश्वर के विषय में जितनी शक्ति माननी हो उतनी अब मानलो। उसे सर्व शक्तिमान, अनन्त शक्तिमान कहा है। ऐसे बडे भारी शब्द मिल गए है। तब फिर क्या चिन्ता ? बस। संसार के कोई भी कार्य हो जो शक्तिसाध्य हो, शक्तिजन्य हो, वे सब ईश्वरकृत ही मान लेना। मानवी शक्ति के बाहर की अकल्प्य कोई भी बात लगे सब ईश्वर के साथ जोडते ही जाओ। और ईश्वर का स्वरूप और विशद बनाते जाना। यह कहां तक उचित है ? ___यह बात तो हुई संसार के कार्यभूत पदार्थ की....। इसी तरह संसार की प्रतिदिन की घटती हुई घटना प्रसंगो और निमित्तों को भी मानव ने ईश्वरजन्य, ईश्वरकृत बना दी है। उदाहरणार्थ जन्म - मरण - जीवन -रोग - सुख - दुःख, संपत्ति - लक्ष्मी का गमनागमन, लडाई झगडे आदि सेंकडों निमित्तों को, सेंकडो घटनाओ को ईश्वर के साथ जोडकर उसे ईश्वर जन्य, ईश्वरकृत या ईश्वरकारक बना दी गई है। बस... जन्म...मरण.... सुख... दुःखादि सब का एक मात्र कारण ईश्वर ही है। ईश्वर के बिना संभव ही नहीं है। यदि यह पूछा जाय कि... यह सब ईश्वर क्यों करता है? ऐसा करने का कारण क्या है? तो उसके उत्तर में एक ही शब्द देते हैं - लीला - क्रीडा' यह तो सब ईश्वर की लीला है, क्रीडा है। अब इसके आगे का प्रश्न यह उठता है कि... ईश्वर ऐसी लीला-क्रीडा क्यों करता है?

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