Book Title: Mahavir Jain Vidyalay Amrut Mahotsav Smruti Granth
Author(s): Bakul Raval, C N Sanghvi
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 390
________________ अमृत महोत्सव स्मृति ग्रंथ 367 तो भी, या जन्म के बाद बच्चा मर जाय तो भी अन्त में यही बात आती है कि - 'ईश्वर की इच्छा ऐसी ही थी', ईश्वर की इच्छा के सामने कोई भी क्या कर सकता है? किसकी चलती है?' यत्र-तत्र-सर्वत्र ईश्वरेच्छा की ही बात सामने आती है। हां... एक बात यहां जरुर स्पष्ट होती है कि... क्या सचमुच ईश्वर की इच्छा ही कारणभूत है या फिर लोगों की अज्ञानतावश या अंधश्रद्धावश ऐसी बात मुँह से नीकल पडती है कि 'ईश्वर की इच्छा'। क्या इसलिए ईश्वर को इच्छा का गुलाम मानना? अज्ञानी, अंधश्रद्धालू मानव का स्वभाव या ऐसी आदत पड़ चुकी है कि... जहां भी बुद्धि न चले, या जो भी बुद्धि के परे की बात हो, असंभव सी लगती हो उन सबको अज्ञानतावश, परन्तु सचमुच ईश्वर की इच्छा से ही होता है या ईश्वर की इच्छा होती भी है या नहीं? वह उसके बारे में कुछ भी नहीं जानता है, फिर भी गतानुगतिकता लोकप्रवाह से वह भी उस सुनीसुनाई बात को दोहराता यहां 'इच्छा' का ऐसा प्रबल स्वरूप देखकर मन में जिज्ञासा होती है कि - आखिर यह 'इच्छा' . क्या है? और कैसी है? क्या इतने महान सर्व शक्तिमान ईश्वर भी इच्छा पर नियंत्रण नहीं पा सकते? इच्छा को अपने वश में नहीं कर सके? आखिर क्यों? जबकि इच्छा को जीतने के लिए धर्मशास्त्रों में मानव को उपदेश दिया गया है। इच्छा के पराधीन - गुलाम मत बनो। इच्छा को जीतना - उस पर विजय पाना ही चाहिए। इच्छा ही इन्सान को दुःखी करती है। इच्छाओं का अन्त ही नहीं है। ये अनन्त है। इसलिए इच्छाओं का नियंत्रण करना ही चाहिए। “इच्छा नियंत्रण” या “इच्छा निरोध" के लिए योगशास्त्र, योग दर्शन में योग-ध्यान साधना आदि करने का उपदेश दिया है। अनेक योगियों, साधकों, ऋषि-महर्षि महापुरुषो ने साधना करके इच्छा पर नियंत्रण पाने के लिए अथाग पुरुषार्थ

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