Book Title: Mahavir Jain Vidyalay Amrut Mahotsav Smruti Granth
Author(s): Bakul Raval, C N Sanghvi
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
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________________ 350 अमृत महोत्सव स्मृति ग्रंथ 45. प्रभु-भक्ति है कल्पतरु ___ - पन्यास श्री नित्यानन्दविजयजी आवश्यकताएँ आदि पूर्ण हो जाती थीं। परन्तु प्रभु भक्ति रूपी कल्पतरु सभी युगों में प्राणिमात्र की समस्त मनोकामनाएं परिपूर्ण करती रही है। इसे ज्ञानियों ने चिन्तामणि रत्न, कामधेनु आदि की उपमाएं दी हैं। प्रभु-भक्ति भक्ति आत्मबल जागृत करती है, जिससे भक्ति-भावित भक्त भय-मुक्त हो जाता है। प्रभु-भक्ति तृष्णातुर को सन्तोष का अमृत पिलाती है, कामातुर को ब्रह्मरस पिलाकर अक्षय सुखोन्मुख करती है, भोगी को योग अर्थात प्रभु-मिलन का मार्ग बताती है, हिंसक को अहिंसा का प्रेम-पीयूष पिलाती है। प्रभु-भक्त वह परमआनंद के अमृत सरोवर में आनन्दपूर्वक स्नान करता है। श्रीमन् मानतुंगसूरि 'भक्तामर स्तोत्र' के अन्तिम श्लोक में भक्ति की महिमा में कहते हैं : 'हे जिनेश्वर प्रभु! इस लोक में तेरे गुणों से संयुक्त और मनोहर वर्ण रूप (सुन्दर अलंकार रूप) बहुरंगे फूलोंवाली तुम्हारी स्तोत्र रूपी माला को जो मनुष्य सर्वदा कंठ में धारण करता है अर्थात् जो तुम्हें स्मरण करता है, उस महा सम्माननीय मनुष्य को लक्ष्मी (राज्य, सुख-सम्पदा, स्वर्ग और मोक्ष-लक्ष्मी) विवश होकर प्राप्त होती है।' 1.