Book Title: Mahavir Jain Vidyalay Amrut Mahotsav Smruti Granth
Author(s): Bakul Raval, C N Sanghvi
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 379
________________ 356 आखिर... ईश्वरको किस स्वरूप में कैसा माने? उनका ही यथार्थ ज्ञान सम्यग् श्रद्धा के लिए नितान्त आवश्यक है। इन लोकोत्तर तत्त्वभूत पदार्थों में परमात्मा-ईश्वर भी एक तत्त्व है। ईश्वर श्रद्धा का केन्द्रीभूत विषय है। आत्मा में मोक्षादि तक के अनेक तत्त्वभूत पदार्थों के केन्द्र में और सबका-आधारभूत तत्व ईश्वर है। अन्य सभी पदार्थ परिधि पर है और ईश्वर उनके मध्य केन्द्र में है। जिस तरह के आधार पर अन्य सभी पदार्थों का आधार है। अत: ईश्वर विषयक ज्ञान एवं श्रद्धा सही यथार्थं होगी तो ही अन्य सभी पदार्थों के बारे में भी ज्ञान और श्रद्धा सही होगी। अत: केन्द्रीभूत-आधारभूत ईश्वर का स्वरूप यथार्थ-वास्तविक अर्थ में समझना अत्यन्त आवश्यक है। जगत के सभी धर्मों में ईश्वर की मान्यता है। पहले ही उल्लेख किया है कि मान्यता (श्रद्धा) का आधार ज्ञान पर है। यदि ज्ञान यथार्थ-सम्यग् रहेगा तो ही उस पर आधारित मान्यता (श्रद्धा) सम्यग्-सही होगी। अत: ईश्वर की मान्यता (श्रद्धा) मात्र होना ही पर्याप्त नहीं है, परन्तु उसके विषय में यथार्थ ज्ञान का होना धुंए के लिए अग्नि के होने के जितना अनिवार्य है। ईश्वर को सभी धर्म मानते हैं। क्योंकि धर्म ईश्वरजन्य है। ईश्वर ने ही धर्म बनाया - बताया (दिखाया) है। यहां ईश्वर और धर्म के बीच भी जन्य-जनकभाव संबंध है। जैसे पिता नहीं होते तो पुत्र नहीं होता। पुत्र का अस्तित्त्व पिता के अभाव में संभव नहीं है। उसी तरह ईश्वर ही नहीं होते तो धर्म कैसे होता? धर्म ईश्वरोक्त है, ईश्वर जन्य है, ईश्वर प्रेरित है, ईश्वर की आज्ञा स्वरूप है, ईश्वर कथित है, ईश्वरोपदिष्ट है, ईश्वर दत्त है। इस तरह अनेक प्रकार से कह सकते हैं। ईश्वर दृष्ट-दर्शित, निर्मित, स्थापित, पुनः स्थापित आदि कहने में थोडा-थोडा शब्दार्थ भावार्थ बदलता है परन्तु मूलार्थ तो ईश्वर केन्द्रित ही है। इसीलिए कोई धर्म हो और उसमें ईश्वर की मान्यता न हो ऐसा

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