Book Title: Mahavir Jain Vidyalay Amrut Mahotsav Smruti Granth
Author(s): Bakul Raval, C N Sanghvi
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 381
________________ 358 आखिर... ईश्वरको किस स्वरूप में कैसा मानें? प्रचलित है, और इसकी भी अखण्ड परंपरा चल रही है। अब रहा प्रश्न ईश्वर के स्वरूप को मानने का। सर्वप्रथम ईश्वर के अस्तित्व को माना-स्वीकारा है। अब वह ईश्वर कैसा है? किस स्वरुप का है? क्या उसका रूप-स्वरूप आकार-प्रकार है ? कैसा है? इत्यादि विषयक विचारणा अनिवार्य है। क्योंकि सिर्फ मानना मात्र तो अज्ञानताजन्य अंधश्रध्धा, अश्रध्धा हो जाएगी। अतः सम्यग्-सही सच्चे ज्ञानपूर्वक ही मानना है। जानने के बाद ही मानना है। तो ही वह मान्यता -सच्ची सम्यग् श्रद्धा होगी। जैन दर्शन सम्यग् दर्शन है। इसीलिए जैन दर्शन में ईश्वर को नहीं मानना ऐसी बात ही नहीं है। परन्तु ईश्वर को कैसा? किस स्वरूप में मानना? इसके उत्तर में जैन दर्शन कहता है कि...सा ईश्वर है। जिस स्वरूप में है, ठीक वैसा ही यथार्थ - वास्तविक स्वरूप में मानना ही सम्यग् दर्शन कहलाएगा। इसलिए ईश्वर को किस स्वरूप में कैसा मानना यह बात बहुत ही महत्त्व की है। बहुत ही भारपूर्वक इसे जैन दर्शन में समझाई है। ऐसा अनिवार्य नहीं है कि ईश्वर को सृष्टिकर्ता ही मानना। या सृष्टि-संसार का जो स्रष्टा-कर्ता-हर्ता-संहर्ता-पालनहार-विसर्जनहार,फलदाता, सुख-दुःख दाता, लीलाकर्ता इत्यादि ही मानना कोई जरूरी नहीं है। ऐसा कदाग्रह आवश्यक नहीं है। क्योंकि अनेक दृष्टियों से काफी गहराई में विचारणा करने पर ईश्वर में ये सभी विशेषताएं जबकि पाई नहीं जाती हैं, सिद्ध ही नहीं होती है वैसा मान लेना यह अयथार्थ - अवास्तविक ज्ञान है। और उससे जन्य छोडना ही लाभदायी हैं। ___ न तो कोई ईश्वर शब्द के साथ सृष्टिकर्ता संहर्ता आदि अर्थ अविनाभाव संबंध से जुड़े हुए है और न ही सृष्टिकर्ता - संहर्ता आदि अर्थ में ईश्वर शब्द जुडा हुआ है। न ही कोई शब्द की व्युत्पत्ति वैसी होती है, और न ही व्युत्पत्ति शास्त्र जन्य ऐसा अर्थ निर्धारित है। इसी तरह व्याकरणशास्त्र

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