________________
[६८]
महामानव मैं मुनि श्रीन्यायविजयजी की जैनदर्शन नामक पुस्तक की ओर आकर्षित करता हूं कि जिसका हिन्दी संस्करण उसके नौ गुजराती संस्करणों के सफल हो जाने के बाद हिन्दी जाननेवालों की मांग को सम्मान देने के लिए एक साल पहले अर्थात् सितम्बर, १९५६ में प्रकाशित हुआ था। सेठ मोतीसा लालबाग चेरिटीज ट्रस्ट की आर्थिक सहायता से क्राउन आठ पेजी ७०० [ ५२+ ६७७ ] से अधिक पृष्ठ की सजिल्द इस पुस्तक को डाक महसूल सहित केवल रु. ४ मूल्य में पाटन (गुजरात) की श्रीहेमचन्द्राचार्य जैन समाने प्रकाशित कर सुलम किया है, यह हिन्दीभाषी संसार के लिए और भी हर्ष की बात है। जैन तत्त्वज्ञान पर लिखी हुई इस पुस्तक से अजैन भी उतना ही लाभ उठा सकेंगे जितना कि एक जैन-कुल-जन्मा उठा सकता है, यह मेरा दृढ़ विश्वास है । लेखकने प्रस्तावना के अन्त में ठीक ही कहा है कि
__ " तत्त्वज्ञान के क्षेत्र पर किसी के मालिकी-हक की मुहर नहीं लगी है, इसका किसीने ठेका नहीं ले रखा है। कोई भी व्यक्ति चिंतन-मनन द्वारा किसी भी समाज के कहे जानेवाले तत्त्वज्ञान के क्षेत्र को अपना बना सकता है । कुलधर्म के तत्त्व. ज्ञान का सम्मान करना और अन्य तत्त्वज्ञान के क्षेत्र पर दृष्टि. क्षेप भी न करना यह उदारवृत्ति नहीं कही जा सकती है । ज्ञान के विकास और सत्य की उपलब्धि का आधार ' सवा सो मेरा' इस मावना पर और तदनुसार विशाल स्वाध्याय पर अवलम्बित है। सत्य सर्वत्र अनियंत्रित और निरावाष रूप से व्यापक है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com