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महावीर
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के श्लोक २२, २३ और २४ को उनने अनेकान्त के दृष्टिकोण द्वारा कतिपय दार्शनिक विवादों का समन्वय करते हुए उद्धृत किए हैं, उनके विचारों का स्वयाल रखा जाए तो जैनों में मूर्ति का पूर्वग्रह अथवा विरोध रह ही नहीं सकता है । उन होकों का अर्थ देना यहां समीचीन होगा
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भगवान् की मूर्ति का आश्रय लेने से सद्भावना जागृत होती है, अतः उपासक उसका अवलम्बन लेते हैं । योग की व्यप्रमत्त अवस्था में स्थिरमना मनुष्यों के लिए मूर्तियोग आबश्यक नहीं है ॥ २२ ॥
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सद्भावना जागृत करने के साधनों में एक अधिक साधन मूर्तियोग भी है। उसका जो व्यक्ति यथाशक्ति विवेकयुक्त आश्रय लेता है वह क्या कुछ अनुचित करता है ? नहीं ॥ २३ ॥
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मूर्तियोग कषार्थों के उपशमन के लिए है, अतः उसका आश्रय लेनेवाला उसका अवलम्बन न लेनेवाले के साथ ( उसका अवलम्बन न लेने के कारण ) यदि विरोधभाव धारण करे तो उसका मूर्तियोग कैसे सार्थक हो सकता है ! ॥ २४ ॥ "
इस संबंध में मूर्तिपूजकों को परोक्ष रूप से स्वयं मूर्तिपूजक परंपरा के बयोवृद्ध शुमि होते हुए भी जो चेतावनी दी है, उसे उद्धृत करना उपयोगी है
"हां, इतना सही है कि वीतराग भगवान् की मूर्ति में वीरामता का प्रदर्शन होना चाहिए। रागद्वेषरहित, महिंसा-संगम
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