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महावीर
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३ भगवान की मूर्ति, ४ जीवननिर्वाह के लिए हिंसा की तरतमता का विचार, ५ शरीर का उपयोग, ६ अनुकम्पा और दान, ७ मैत्री आदि चार भावनाएं, ८ विश्वप्रेम और मनशुद्धि, ९ अन्तर्युद्ध, १० राग और वीतरागता, ११ ईश्वरकृपा, १२ व्यापक हितभावना, १३ अनशनत्रत लिए हुए व्यक्ति के बारे में, १४ सरल मार्ग, १५ आत्मा के स्वरूप का शास्त्रीय विवेचन, १६ लेश्या, १७ कार्यकारणभाव, १८ नियतिवाद, १९ जातिकुलमद, २० ज्ञान - भक्ति - कर्म, २१ श्रद्धा, २२ शास्त्र, २३ वैराग्य और २४ मुक्ति । चतुर्थ खण्ड कर्मविचार का पांचवा न्यायपरिभाषा का और छठा जैनदर्शन की असाम्प्रदायिकता और उदारता का विवेचन करता है। इन तीनों की पृष्ठसंख्या क्रमश: है - ८६, १५३ और २७। यत्र तत्र जैनागमों व हिन्दू स्मृतियों आदि के उद्धरण भी विषय स्पष्ट करने के लिए दिए गए हैं । पुस्तक सुन्दर और प्रायः शुद्ध छपी हुई है । लेखक ने अपना चित्र नहीं दे कर अपने उपकारक गुरु स्वर्गीय आचार्य श्रीविजयधर्मसूरिजी का ही चित्र दिया है, इससे स्पष्ट है कि वह स्वविज्ञापन से दूर ही रहना चाहता है । मुनिश्रीने ऐसी उपयोगी, सरल और मुहावरे की भाषा में लिखी पुस्तक हिन्दी संसार को भेट की इसके लिए हम हिन्दी जाननेवाले उनके सदा ही ऋणी रहेंगे । इस पुस्तक में एक ही बात खटकती है अर्थात् अन्त में शब्दानुक्रमणिका का अभाव, जो कि आज के युग में अत्यन्त ही आवश्यक है । मेरा विश्वास है कि नये संस्करण में यह कमी अवश्य ही पूर्ण
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