Book Title: Maha Manav Mahavir
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Tapagaccha Jain Sangh

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Page 81
________________ [७६] महामानव बण्ड से नहीं ।........ धर्म मुरुष मुद्दे की चीज है, जब कि दार्शनिक मतवाद तथा बियाकाण्ड का सौष्ठव धर्मपालन में उपयोगी अथवा सहायक होने में ही है।....वार्शनिक मन्तव्यों के भेदों अथवा क्रियाकाण्ड की भिन्न-भिन पद्धतियों के ऊपर से धर्म को भिन्न भिन्न मान लेने की दृष्टि गलत है, इसलिए वह दूर करनी चाहिए और महिंसा-सत्य के सन्मार्ग में धर्म माननेवाले सब, चाहे वे लाखों मोर करोड़ों हों, एक ही धर्म के है-साधर्मिक है ऐसा समझना चाहिए।" __“ जीवन का कल्याण शस्त्रज्ञान की विशालता अथवा अधिकता पर अवलम्बित नहीं है। जीवन का कल्याण तो तस्वमत समझ पर दृढरूप से अमल करने में है। " इसीलिए मुनिजी को " मेरा सो सञ्चा" ग्रह जरा भी नहीं है । "सच्चा सो मेरा" के रंग में वे इतने रंग गए हैं कि यह लिखते जरा भी नहीं झिझकते कि " द्रव्यपूजा भावपूजा के लिए वातावरण उपस्थित करने में निमित्तम्न होती है, परन्तु यदि वास्तविक भावपूजा न हो तो अकेली द्रव्यपूजा से योग्य सफलता नहीं मिळ सकती । द्रव्यपूजा प्रभु के प्रतीक की हो सकती है, परन्तु मावपूजा तो मूर्वि जिसका प्रतीक है उस प्रभु की होती है। भाव का सम्बन्ध प्रमु के गुणों के साथ है। द्रव्यपूजा थोड़े से समय में पूर्ण हो जाती है, जबकि मास्यूजा-पमुगुणमक्कि-मगवमुणप्रणिधान के लिए स्थान अथवा काल की कोई मर्यादा नहीं है।" [पृ. १९४ ] उनकी रचित बनेकान्तविमूति-द्वात्रिंशिका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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