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महावीर
[७१] मानव की कठिनाइयां सुलझ नहीं रही थी, क्योंकि परलोक में वह मुखी हो इसके लिये उसको धर्म करना चाहिए और धर्म में विश्वास रखना चाहिए, यह बात आज उसके गले नहीं उतरती है। मुनिश्रीने आज के मानव की इस द्विविधा को भली प्रकार जाना और अनुभव किया है। तभी तो वे पृष्ठ ३८९ पर स्पष्ट ही लिखते हैं कि-"धर्म का फल केवल पारलौकिक ही नहीं है। अनात्मवादी अथवा परलोक में अश्रद्धालु या संदिग्ध मनुष्य भी, यदि समझदार हो, धर्म अर्थात् न्याय-नीति के सन्मार्ग पर उत्साहपूर्वक चलता है, क्योंकि वह समझता है कि मानवसमाज यदि न्यायसम्पन्न सोजन्यभूमि पर विचरण करने लगे तो उसका ऐहिक जीवन खूब स्वस्थ बन सकता है और यदि मरणोत्तर परलोक होगा तो वह भी ऐहिक जीवन के स्वच्छ एवं सुन्दर प्रवाह के कारण अच्छा और सुखाव्य ही मिलने का । "
पृ. ३९० में और भी वे कहते हैं कि-" निःसंदेह धर्म को ऐहिक-प्रत्यक्षफलदायक समझना यथार्थ ही नहीं, अपितु आवश्यक मी है । यदि मनुष्य यहां पर देव [दैविकगुणाढ्य ] बने तभी मर कर वह देव हो सकता है। यहां पर पशु जैसा जीवन जीने से ही मरणोत्तर पशुजीवन की [ तिथंच ] गति में और यहां पर घोर दुष्टतारूप नारकीय जीवन जीने के कारण ही मरणोत्तर नारकीय गति में जीव जाता है । इसी प्रकार इस देह में मानवता के योग्य सद्गुणों का विकास करनेवाला मर कर पुनः मानव बन्म लेता है।"
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