Book Title: Maha Manav Mahavir
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Tapagaccha Jain Sangh

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Page 72
________________ न्या. न्या. मुनिमहाराज श्रीन्यायविजयजी के जैनदर्शन ( हिन्दी ) की आलोचना लेखक : श्री कस्तूरमलजी बाँठिया, कलकत्ता 66 जब तक मैं हिन्दू-धर्म के रहस्य को पूरी तौर से न जान लूं और उससे मेरी आत्मा को असंतोष न हो जाए, तब -तक मुझे अपना कुल - धर्म नहीं छोड़ना चाहिए । 99 - गांधीजी, रायचन्दभाई के संस्मरण आज अधिकांश पढ़े-लिखों की आत्मा को अपने कुलधर्म से असंतोष है और वे उसे सर्वथा मले छोड़ नहीं पाए हों, परन्तु उसकी भरसक उपेक्षा तो वे उसके रहस्य की छानबीन किए बिना कर ही रहे हैं। उनकी यह शिकायत है कि आधुनिक संसार की समस्याओं को समझने और सुलझाने का निर्देशन उन्हें संतोष हो जाए वैसा न तो अपने तथाकथित धर्माचायों से मिलता है और न कुछएक धर्मग्रन्थों के आलोड़न से ही । अनेक धर्मग्रन्थ मनन कर अपने असंतोष का निवारण कर सकें, उतना अवकाश भी आज के युग में प्राप्त करना वे कठिन मानते हैं । ऐसे असंतुष्ट जनों और विशेष रूप से असंतुष्ट जैनों का ध्यान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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