Book Title: Lonkashah Mat Samarthan
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 4
________________ निवेदन तीर्थंकर प्रभु अपनी कठिन साधना के बल पर चार घाती कर्मों को क्षय करते हैं। चार घाती कर्मों के क्षय हो जाने पर प्रभु वाणी की वागरणा करते हैं तथा तीर्थ की स्थापना करते हैं। तीर्थ यानी तिरने का माध्यम। प्रभु तीर्थ की स्थापना इसलिए करते हैं कि संसारी जीव जो अनादि अनन्त काल से संसार समुद्र में परिभ्रमण कर रहे हैं, वे तीर्थ का आधार लेकर इस संसार समुद्र से तिर सकें। प्रभु के तीर्थ के अर्न्तगत साधु साध्वी एवं श्रावक श्राविका सम्मिलित है। संसार समुद्र से तिरने का सबसे श्रेष्ठ एवं राजमार्ग तो सर्व विरति साधुपना है, किन्तु सभी की इतनी शक्ति नहीं होती कि सर्व विरति साधुपने का मार्ग अपना सके, क्योंकि सर्व विरति साधुपने का मार्ग कोई सामान्य मार्ग नहीं है। इसके लिए उत्तराध्ययन सूत्र के १६ वें अध्ययन में मृगापुत्र जी के माताजी अपने पुत्र को साधुपने की कठिनता कैसी है। उसके लिए कहती है - जावज्जीवमविस्सामो, गुणाणं तु महब्भरो। गुरुओलोहभारुव्व, जोपुत्ता! होइदुव्वहो॥३६॥ अर्थात् - जिस प्रकार लोह के बड़े भार को दुर्वह-सदा उठाए रखना बड़ा कठिन है। उसी प्रकार हे पुत्र! साधुपने के अनेक गुणों का जो महान् भार है उसको विश्राम लिए बिना जीवनपर्यन्त धारण करना दुर्वह बड़ा कठिन है। आगासे गंगसोउव्व, पडिसोउव्व दुत्तरो। बाहाहिंसागरोचेव, तरियव्वोयगुणोदही॥३७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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