Book Title: Lokprakash Part 03
Author(s): Padmachandrasuri
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 568
________________ (५१५). के समान समझ लेना । इस विमान में पूर्व के समान महापुण्यशाली आत्मा देव रूप में उत्पन्न होता है । (३८०) सपादा वार्द्धयः सप्त दशाऽऽद्ये प्रतरे स्थितिः । द्वितीय त्वब्दयः सप्तदश सार्दाः परा स्थितिः ॥३८१॥ अष्टादश च पादोनास्तृतीये परमा स्थितिः । तुर्येऽअष्टादश संपूर्णाः सागरा: स्यात्परा स्थितिः ॥३८२॥ इस देवलोक के अन्दर प्रथम प्रतर के देवलोक का आयुष्य सवा सत्तरह सागरोपम का होता है, दूसरे प्रतर के देवों का आयुष्य साढ़े सतरह सागरोपम का है. तीसरे प्रतर के देवों का आयुष्य पोने अठारह साग़रोपम का है और चौथे प्रतर के देवों का आयुष्य अठारह सागरोपम का होता है । (३८१-३८२) सर्वत्रापि जघन्या तु भवेत्सप्तदशाब्धयः । अथ स्थित्यनुसारेण, देहमानं निरूप्यते ॥३८३ ।। चार प्रतर के अन्दर जघन्य आयुष्य सत्तरह सागरोपम होता है अब स्थिति के अनुसार देहमान कहते हैं । (३८३) .. चत्वारोऽत्र करा देह, उत्कृष्ट स्थिति शालिनाम् । त एवैकादशैकांशयुजो, जघन्य जीविनाम् ॥३८४॥ उत्कृष्ट आयुष्य वाले देव के शरीर की ऊँचाई चार हाथ की होती है और जघन्य आयुष्य वाले के शरीर की ऊँचाई चार हाथ नौ अंश है । (३८४) अष्टादशभिरब्दानां सहस्रः परमायुषः । जघन्यस्थितयः सप्तदशभिर्भोजनार्थिनः ॥३८५॥ उत्कृष्ट आयुष्य वाले देवों के अठारह हजार वर्ष के अन्तर में और जघन्य आयुष्य वाले देवों के सत्तरह हजार वर्ष अंतर में भोजन की इच्छा होती है । (३८५) उच्छ्वसन्तीह नवभिर्मासैः परमजीविनः । हीनायुषोऽष्टभिः सार्बेः, परे तदनुसारतः ॥३८६॥

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