Book Title: Lokprakash Part 03
Author(s): Padmachandrasuri
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 579
________________ (५२६) · तथाहुः संग्रहणीवृत्तौ - "विशेष व्याख्या चैवा हारिभद्र मूल टीकानुसाररतः केचित्त सामान्ययेन व्याचक्षते ।" श्री संग्रहणी की वृत्ति में कहा है कि - यह विशेष व्याख्या श्री हरिभद्र सूरी जी महाराज की मूल टीकानुसार से कुछ तो सामान्य से कहते हैं । पञ्चमी पृथिवीं यावत्पश्यन्त्यवघि चक्षुषा। आनता:प्राणताश्चैनामेवानल्पाच्छपर्यवाम् ॥४४३॥ ... इस आनत के देव अवधि लोचन द्वारा नीचे पांचवी नरक पृथ्वो तक देख सकते है और प्राणत के देव प्राण के देय पोचवी पृथ्वी तक ही देख सकते है परन्तु बहुत और स्वच्छ पर्याय युक्त देख सकते हैं । (४४३) .. आरणाच्युतदेवा अप्येनामेवातिनिर्मलाम् । बहुपर्यायां च तत्राप्यारणेभ्यः मरेऽधिकाम् ॥४४॥ आरण और अच्युत के देव भी यहां तक ही देख सकते हैं । परन्तु अति निर्मल और पर्याय युक्त देख सकते हैं और आरण से भी अच्युतवाले देव विशेष व्यवस्थित निर्मल-बहुत पर्याय संपन्न देख सकते हैं । (४४४) अथात्र प्रतरे तुर्ये, स्यात्प्राणतावंतसकः । । सौधर्मवदशोकाद्यवतंसक चतुष्क युक् ॥४४५॥ सौधर्म देवलोक के समान यहां भी प्राणत स्वर्ग में अशोकावतंसक आदि चार विमानों से युक्त प्राणतावतंसक विमान चौथे प्रतर में है । (४४५) प्राणतः स्वः पतिस्तत्रोत्पन्नोऽत्यन्तपराक्रमः । कृत्वाऽर्हत्प्रतिमाद्यर्चा, सिंहासने निषीदतिः ॥४४६॥ अत्यन्त पराक्रमी प्राणत नामक इन्द्र यहां उत्पन्न होकर श्री अरिहंत परमात्मा की पूजा करके सिंहासन पर विराजमान होता है । (४४६) शतैर्रद्ध तृतीयैः स, सेव्योऽभ्यन्तरपर्षदाम् । पञ्चपल्याधिकैकोनविंशत्यभ्भोधिजीविनाम् ॥४४७॥ पञ्चभिश्च देवशतैर्जुष्टो मध्यमपर्षदाम् । चतुःपल्याधिकै कोनविंशत्यर्णवजीविभिः ॥४४८॥

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