Book Title: Lokprakash Part 03
Author(s): Padmachandrasuri
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 590
________________ (५३७) इत्युन्मृष्टकलङ्कां तां कान्तां नीत्याऽऽत्मना सह । जगाम सपरीवारो, रामः केवलिनोऽन्तिके ॥१३॥ इस तरह से उसका कलंक साफ हो गया, इससे अपनी पत्नि सीता को साथ में लेकर परिवार सहित रामचन्द जी केवल ज्ञानी महात्मा के पास में गये । (५१३) पप्रच्छ देशनान्ते च रामः भूर्व भवान्निजा । ताश्चाचख्यौ यथाभृतान् केवली जयभूषणः ॥१४॥ उपदेश पूर्ण होने के बाद श्री रामचन्द्र जी ने अपना पूर्व जन्म पूछा और श्री जयभूषण केवली भगवन्त ने जिस तरह से पूर्वजन्म था उस तरह कहा । (५१४) सीताऽपिप्राप्तवैराग्या, संसारासारवेक्षिणी । दीक्षांपाāमुनेरस्य, जग्राहोत्साहतोस्यात् ॥१५॥ संसार की असारता को देखकर सीता ने भी वैराग्य प्राप्त करके इस मुनि के पास तुरन्त ही उत्साह पूर्व दीक्षा स्वीकार की । (५१५) षष्टिं वर्षाणि चारित्रमाराध्य विमलाशयात् । : त्रयस्त्रिंशदहोरात्रि विहितानशंना ततः ॥१६॥ मृत्वा समाधिना स्वर्गेऽच्युते लेभेऽच्युतेन्द्रताम् । .सोऽथ प्राग्वज्जिनाद्यर्चा, कृत्वा सदसि तिष्ठती ॥५१७॥ साठ वर्ष तक निर्मल भावना पूर्वक चारित्र की आराधना करके तेतीस दिन का अनशन करके समाधिपूर्वक मर कर वह सीता साध्वी जी अच्युत देवलोक में अच्युतेन्द्र रुपं में उत्पन्न हुई और वह अच्युतेन्द्र पूर्व के समान अरिहंत प्रभु की पूजा करके सभा में विराजमान होती है । (५१६-५१७) शतेन पञ्चविंशेन, सेव्यौऽभ्यन्तरपर्षदि । एक विंशत्यब्धिसप्तपल्यस्थितिकनाकिनाम् ॥१८॥ सार्द्धद्विशत्या देवानां, मध्यपर्षदि सेवितः । षट्पल्योपमयुक्तै कविशत्युदधिजीविनाम् ॥१६॥

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