Book Title: Lokprakash Part 03
Author(s): Padmachandrasuri
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 604
________________ (५५१) समये च्यवनोत्पत्ति संख्या चात्र यथाऽच्युते । च्यवनोत्पत्तिविरहः, परमस्तु भवेदिह ॥५६७॥ संख्येया वत्सारशता आद्य ग्रैवयकत्रिके । अर्वाग्वर्ष सहस्रात्तेमध्यमीयत्रिके पुनः ॥५६८॥ लक्षाग्वित्सराणां, स्युः संख्येयाः सहस्रकाः । कोटे रर्वाग्वर्षलक्षाः संख्येयाश्चरमत्रिके ॥५६६॥ एक समय में च्यवन और उतपत्ति की संख्या यहां अच्युत देवलोक के अनुसार है । च्यवन और उत्पत्ति का उत्कृष्ट विरह आद्य ग्रैवेयक त्रिक में संख्यात सौ वर्ष का है परन्तु हजार वर्ष के पहले होता है, मध्यम त्रिक में संख्यात् हजार वर्ष भी लाख वर्ष के अन्दर है और चरमत्रिक में संख्यात् लाख वर्ष और करोड वर्ष के अन्दर होता है। (५६७-५६६)... आद्यषड्गवेयकस्थाः, पश्यन्त्यवधिचक्षुषा । षष्ठयास्तमोऽभिधानायाः पृथ्व्या अधस्तलावधि ॥६००॥ प्रारम्भ के छ: ग्रेवेयक तक के देव अवधिज्ञान से छठी पृथ्वी के नीचे तक देख सकते हैं । (६००) . अधस्तनापेक्षया च पश्यत्यू;वंगाः सुराः । . विशिष्ट बहुपर्यायोपेतामेतां यथोत्तरम् ॥६०१॥ . नीचे के ग्रैवेयक की उपेक्षा से ऊपर के ग्रैवेयक की अपेक्षा से ऊपर के ग्रैवेयक के देवं विशिष्ट रुप में तथा बहुत पर्याय से युक्त पृथ्वी को देख सकते हैं। (६०१) तृतीयत्रिकगाः पश्यन्त्यधो माधवतिक्षितेः । ____ अवधिज्ञानमे तेषां, पुष्पचङ्गे रिकाकृति ॥६०२॥ तीसरे त्रिकवासी ग्रैवेयक देव अवधि ज्ञानी से नीचे माघवती पृथ्वी तक देख सकते हैं इन देवों के अवधि ज्ञान की आकृति पुष्प चंगेरी के समान होती है । (६०२) अथोर्ध्वनवमवेयकादूरमतिक मे । स्याद्योजनैरसंख्ये यैः प्रतरोनुत्तराभिधः ॥६०३॥

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