Book Title: Lokprakash Part 03
Author(s): Padmachandrasuri
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 603
________________ (५५०) त्रिशदम्भोधयो ज्येष्ठा, ग्रैवेयकेऽष्टमे स्थितिः । एकोनत्रिंशदेते च स्थितिरत्रलधीयसी ॥५६०॥ द्वौ करावेकभागाढयौ, देहो ज्येष्ठायुषामिह । तावेव द्वौ सद्वि भागौ स्यान्जधन्युषां तनुः ॥५६१॥ आठवें ग्रैवेयक के देवों का उत्कृष्ट आयुष्य ३० सागरोपम है और जघन्य आयुष्य २६ सागरोपम है, उत्कृष्ट आयुष्य वाले देवों का शरीरमान २ हाथ है तथा जघन्य आयुष्य वाले देवों का शरीरमान २ २हाथ होता है ।(५६०-५६१) गै वेयक ऽथ नवम एक त्रिंशत्पयोधयः । स्थिति वीं लधिष्ठा तु, त्रिंशदम्भोधिसंमिता ॥५६२॥ ... हस्तौ द्वावेव संपूर्णी, वपुरुत्कुष्टजीविनाम् । ... द्वौ करावेकभागाढयौ, तनुर्जघन्यजीविनाम् ॥५६३॥ नौवें ग्रैवेयक के देवों का उत्कृष्ट आयुष्य ३१ सागरोपम है और जघन्य आयुष्य ३० सागरोपम है, उत्कृष्ट आयुष्य वाले देवों का शरीरमान २ हाथ का है और जघन्य आयुष्य वाले देवों का शरीरमान २ हाथ का होता है । (५६२-५६३) स्वस्व स्थित्यम्भोनिधीनां, संख्ययाऽद्भसहस्रकैः। .. आहार काक्षिणा: पक्षैस्तावद्भिरुच्छवसन्तिं च ॥५६४॥ यहां के देवों को अपने-अपने आयुष्य के सागरोपम की संख्या प्रमाण हजार वर्ष आहार की इच्छा होती और उतने ही पक्ष से श्वासोश्वास लेते हैं । (५६४) आद्यसंहननाः साधुक्रियानुष्ठानशालिनः ।। आयान्त्येषु नराएव, यान्ति च्युत्वाऽपि नृष्वमी -॥५६५॥ इन ग्रैवेयक में प्रथम संघयण वाले और चारित्रधारी मनुष्य ही आते हैं और च्यवन कर मनुष्य गति में ही जन्म लेते हैं । (५६५) . मिथ्यात्वि नो येऽप्य भव्या, उत्पद्यन्तेऽत्र देहिनः । जैन साधु क्रियां तेऽपि समाराध्यैव नान्यथा ॥५६६ ॥ मिथ्यात्वी और अभव्य जीव भी यदि यहां उत्पन्न होते हैं, वह.जैन साधु की क्रिया की आराधना करके ही उत्पन्न होते हैं उसके बिना उत्पन्न नहीं होते । (५६६)

Loading...

Page Navigation
1 ... 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620