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त्रिशदम्भोधयो ज्येष्ठा, ग्रैवेयकेऽष्टमे स्थितिः । एकोनत्रिंशदेते च स्थितिरत्रलधीयसी ॥५६०॥ द्वौ करावेकभागाढयौ, देहो ज्येष्ठायुषामिह । तावेव द्वौ सद्वि भागौ स्यान्जधन्युषां तनुः ॥५६१॥
आठवें ग्रैवेयक के देवों का उत्कृष्ट आयुष्य ३० सागरोपम है और जघन्य आयुष्य २६ सागरोपम है, उत्कृष्ट आयुष्य वाले देवों का शरीरमान २ हाथ है तथा जघन्य आयुष्य वाले देवों का शरीरमान २ २हाथ होता है ।(५६०-५६१)
गै वेयक ऽथ नवम एक त्रिंशत्पयोधयः । स्थिति वीं लधिष्ठा तु, त्रिंशदम्भोधिसंमिता ॥५६२॥ ... हस्तौ द्वावेव संपूर्णी, वपुरुत्कुष्टजीविनाम् । ...
द्वौ करावेकभागाढयौ, तनुर्जघन्यजीविनाम् ॥५६३॥
नौवें ग्रैवेयक के देवों का उत्कृष्ट आयुष्य ३१ सागरोपम है और जघन्य आयुष्य ३० सागरोपम है, उत्कृष्ट आयुष्य वाले देवों का शरीरमान २ हाथ का है और जघन्य आयुष्य वाले देवों का शरीरमान २ हाथ का होता है । (५६२-५६३)
स्वस्व स्थित्यम्भोनिधीनां, संख्ययाऽद्भसहस्रकैः। ..
आहार काक्षिणा: पक्षैस्तावद्भिरुच्छवसन्तिं च ॥५६४॥
यहां के देवों को अपने-अपने आयुष्य के सागरोपम की संख्या प्रमाण हजार वर्ष आहार की इच्छा होती और उतने ही पक्ष से श्वासोश्वास लेते हैं । (५६४)
आद्यसंहननाः साधुक्रियानुष्ठानशालिनः ।।
आयान्त्येषु नराएव, यान्ति च्युत्वाऽपि नृष्वमी -॥५६५॥
इन ग्रैवेयक में प्रथम संघयण वाले और चारित्रधारी मनुष्य ही आते हैं और च्यवन कर मनुष्य गति में ही जन्म लेते हैं । (५६५) .
मिथ्यात्वि नो येऽप्य भव्या, उत्पद्यन्तेऽत्र देहिनः ।
जैन साधु क्रियां तेऽपि समाराध्यैव नान्यथा ॥५६६ ॥
मिथ्यात्वी और अभव्य जीव भी यदि यहां उत्पन्न होते हैं, वह.जैन साधु की क्रिया की आराधना करके ही उत्पन्न होते हैं उसके बिना उत्पन्न नहीं होते । (५६६)