Book Title: Lokprakash Part 03
Author(s): Padmachandrasuri
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 605
________________ (५५२) अब अनुत्तर विमानो का वर्णन करते हैं - नौ ग्रैवेयक से असंख्य योजन ऊँचे अनुत्तर नाम के प्रतर होते हैं । (६०३) नास्त्यस्मादुत्तरः कोऽपि, प्रधानमथवाऽधिकः । ततोऽयम द्वितीयत्वाद्विख्यातोऽनुत्तराख्यया ॥६०४॥ इस प्रतर के बाद अन्य कोई प्रतर ऊपर नहीं है, इससे अथवा उनसे अधिक कोई नही है, इससे अद्वितीय ये प्रतर अनुत्तर नाम से पहिचाने जाते हैं । (६०४) सिद्धि सिंहासनस्यैष, विभर्ति पादपीठताम् । चतुर्विमानमध्यस्थरू चिरै क विमानकः ॥६०५॥ . .. यह अनुत्तर नाम का प्रतर सिद्धि (मोक्ष) रूपी सिंहासन के पादपीठ रूप में शोभायमान है, चारों विमान के मध्य में एक सुन्दर विमान है । (६०५) सर्वोत्कृष्टास्तत्र पञ्च, विमानाः स्युरनुत्तराः । .. . तेष्वेकमिन्द्रकं मध्ये चत्वारश्च चतुर्दिशम् ॥६०६॥ . . वहां सर्वोत्कृष्ट पांच अनुत्तर विमान है । उसमें मध्य के अन्दर एक इन्द्रक विमान है और चारों ओर एक एक विमान है । (६०६). ... प्राच्यां तत्रास्ति विजयं, विमानवरमुत्तमम् । दक्षिणस्यां वैजयन्तं, प्रतीच्यां च जयन्तकम् ॥६०७॥ उत्तरस्यां दिशि भवेद्विमानमपराजितम् । स्वार्थसिद्धिकृन्मध्ये, सर्वार्थ सिद्धिनामकम् ॥६०८॥ . इन्द्रक विमान की पूर्व दिशा में श्रेष्ठ विजय नाम का विमान है दक्षिण दिशा में वैजयन्त नाम का, पश्चिम दिशा में जयन्त नाम का और उत्तर दिशा में अपराजित नाम का विमान है और मध्य में सर्व अर्थ को सिद्ध करने वाला स्वार्थ सिद्ध नाम का विमान है । (६०७-६०८) प्रथमप्रतरे प्रोक्ताः पत योयाञ्चतुर्दिशम् । द्वाषष्टिकास्ता एकैकहान्याऽत्रैकावशेषिकाः ॥६०६॥ प्रथम प्रतर में (पहले देवलोक के प्रथम प्रतर में) उसके चारों दिशा के अन्दर बासठ-बासठ विमान हैं, वह एक-एक घटते यहां एक ही शेष रहता है । (६०६)

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