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णामानुक्” इस पाणिनि-सूत्र में यवन शब्द का ग्रहण है, उनका भाव यह है कि सिकन्दर के आक्रमण के बाद ही भारतीय लोग यवनों से परिचित हुए। सिकन्दर का आक्रमण ३२४ ई० पू० हुअा तो पाणिनि इससे बाद ही हुए होंगे।
किन्तु दूसरे गंभीर विचारक इन युक्तियों को सर्वथा खोखली मानते हैं। क्योंकि श्रमण शब्द संन्यासी के अर्थ में गौतम बुद्ध से बहुत पहले "शतपथ ब्राह्मण" में प्रयुक्त हुअा है “अत्र पिता अपिता भवति माता अमाता लोका अलोका देवा अदेवाः श्रमणोऽश्रमणः तापसोऽतापास' इति । और संन्यास की प्रथा भी अर्वाचीन नहीं है, बुद्ध से बहुत पूर्व उपनिषदों में याज्ञवल्क्य का प्रव्रजन-प्रसङ्ग अति प्रसिद्ध है। __दूसरे भारतीय लोग सिकन्दर के आक्रमण के बहुत पहले यवनों से परिचित थे। महाभारत में यवन सैनिकों के लड़ने का प्रसङ्ग है। भगवान् श्रीकृष्ण के साथ काल यवन का युद्ध तो अतिशय प्रसिद्ध ही है। युधिष्ठिर जी मीमांसक का यह मत है कि अति प्राचीन काल में यवन-जाति भारत के समीप ही बसती थी। बाद में ये लोग यूनान में जाकर बसे । इसके अतिरिक्त सिकन्दर से दो सौ वर्ष पहले ई० पू० ५२२ में हखमी वंशोत्पन्न यवन 'डेरीयस' प्रथम ने भी भारत के पश्चिमोत्तर सीमाप्रान्त पर अाक्रमण किया था। यह इतिहास तो प्रसिद्ध ही है।
महामहोपाध्याय शिवदत्त पाणिनि को नन्द के समानकालिक मानते हैं और नन्द को राजतरंगिणी और वाराही-संहिता के गणना के अनुसार २१५३ कलि-गतान्द में हुआ मानते हैं, किन्तु ऐतिहासिक लोग नन्द का प्रामाणिक समय २४५३ कलिगतान्द अर्थात् ई० पू० सातवीं शताब्दी मानते हैं और इसीको पाणिनि का वास्तविक समय कहते हैं । कि तु भण्डारकर और गोलस्टुकर ने पाणिनि का समय ५० ईस्वी के कुछ पूर्व निश्चित किया है और श्री वासुदेवशरण अग्रवाल अनेक ऐविद्यासिक तथ्यों के आधार पर ई० पू० पांचवीं सदी के मध्य को पाणिनि का समय म्पनते हैं। उनका कथन है कि "पाणिनि ने लगभग ४४०-४३० ई० पू० के बीच अपने प्रद की रचना करने के बाद पाटलीपुत्र की यात्रा की होगी, उस समय उनकी आयु लग भग ५० वर्ष की मानी जाए तो उनका जन्म ४८० ई० पू० के लगभग ठहरता है। अष्टाध्यायी' जैसे शास्त्र की रचना ४० वर्ष की आयु से .५० वर्ष की आयु तक सिद्ध होनी संभव है। उसके लिए आवश्यक बुद्धि-परिपाक, गम्भीर चिंतन, दीर्घकालीन सामग्री-संकलन एवं स्वानुभव के आधार पर साधिकार विश्लेषण -ये सब बातें श्रायु