Book Title: Kya Mrutyu Abhishap Hai Author(s): Parmatmaprakash Bharilla Publisher: Pandit Todarmal Smarak TrustPage 34
________________ * क्या उक्त अवस्था में हमारी सोच इसप्रकार की नहीं होनी चाहिए कि 'अरे ! मैंने यह क्या किया ? इन्हें इसप्रकार अकेला छोड़ दिया, हमेशा के लिए ? यदि कभी कुछ हो जाता तो क्या होता ? मैं तो कभी इनसे मिल भी न पाता, इनकी सेवा ही न कर पाता, अपने कर्तव्य की पूर्ति से वंचित ही रह जाता। अब सौभाग्य से यह अवसर मेरे हाथ आया है तो अब तो मैं इन्हीं के साथ रहकर इनका सान्निध्य लाभ लूँगा व इनकी सेवा करके अपना ऋण उतारूंगा।' क्या कोई ऐसा करता है ? क्या कोई ऐसा कर पाता है ? नहीं ! ऐसा हो ही नहीं पाता । लोग कहेंगे. क्या करूँ, परिस्थितियाँ ही ऐसी हैं; पर मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ। आज की परिस्थिति तो आज निर्मित हुई है, पर तू तो वर्षों पहिले उन्हें छोड़कर परदेश चला गया था। तब क्या सोचकर गया था ? अस्थायी तौर पर तो गया नहीं था, स्थायी तौर पर हो गया था न ? क्या इसके मायने स्पष्ट नहीं हैं कि अब तूने मृत्यु तक के लिए उन्हें अकेला छोड़ दिया हैं, अब तुझे उनकी आवश्यकता नहीं रही। और अब, जब तूने उहें छोड़ ही दिया है तो तुझे क्या फर्क पड़ता है ? 'चाहे लाख वर्षों तक जीवें या मृत्यु आज ही आ जावे' तेरे लिए तो वे मृतसम ही हो गए हैं न ? हममें से कोई भी इन परिस्थितियों का अपवाद नहीं है। सभी की हालत ऐसी ही है। हम सभी इन सभी बातों के अर्थ बखूबी समझते भी हैं, पर हम इनकी चर्चा नहीं करते; क्योंकि हम इस सच से मुँह मोड़ना चाहते हैं। इन हालातों में अब मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि आखिर अब आप क्यों जीना चाहते हैं, किसके लिए जीना चाहते हैं ? स्वयं अपने लिए ? नहीं ! कृषकाय व विपरीत परिस्थितियों में इस क्या मृत्यु महोत्सव अभिशाप है ? / ३२.Page Navigation
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