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३ द्रविड-दक्षिणपथके वास्तुग्रंथोंके अनुसार द्रविडजाति को षड्वर्ग कहा गया है। तदनुसार १ अधिष्ठान (पीठ) २ पाद (स्तंभयुक्त मंडोवर) ३ प्रस्तर(वरंडिका और छाद्य-छज्जा) ४ ग्रीवा ५ चुलिका (आमलकचंद्रिका-कर्परी पद्मपत्र) ६ स्तूपिका (कलश) जिसे ईतने अंग होते हैं उसी द्रविडजातिका प्रासाद जानना । कई बार प्रस्तरके ऊपर कूट और शाला शिखर की व्यंजनासे भूमियाँ बनायी जाती हैं। आगे मुखमंडल किया जाता है। उसके बाह्य भागमें पाद-स्तंभयुक्त मंडोवर और ऊपर प्रस्तर होता है। मंडप के अंदर मध्यमें चार स्तम्भों पर छाद्य-छत्तियाँ रखते हैं। इससे मंडप को मात्र समदल छादन ( Flat Roof) धब्बा किया जाता है।
द्रविडतल दर्शन-तल आयोजन में सामान्यतया चोरस क्षेत्रमें कर्णभद्रादि अंगों एक सूत्र में होते हैं । पादान्तर शलिलान्तर से अंगोंको जुदा किया जाता है : नागर छन्दको अट्ठाईकी तरह मध्यका भद्र और छेडे पर कर्ण कहते हैं । उपरोक्त षड् वर्गके प्रत्येक के भिन्न भिन्न अंगों हैं। उनका विशेष स्पष्टीकरण करने की आवश्यकता है।
१. अधिष्ठान-पीठको तीन थरों सामान्य रीतसे हैं। १ पद्म (जाडम्बा) २ कुमुद (कणी छजी) ३ सिंहमाला (प्रासपट्टी जैसा) उसके पर प्रति और वेदी नामके दो सपाट थर किये जाते हैं। वहाँसे आदितलका प्रारम्भ होता है। उसे पादमें समाविष्ठ माना जाता है।
२. पाद-(स्तम्भयुक्त मंडोवर) उसकी तीन बाजु पर भद्रको देवकोष्ठ कहा जाता है। उसमें जिस देवका प्रासाद हो उसके पर्याय स्वरूप रखे जाते हैं। यह बाह्यस्वरूप कहा । अंदर गर्भगृह होता है।
३. प्रस्तर-प्रस्तरके अंगमें १ वरंडिका २ उत्तर ३ वाजन और ४ कपोत (अर्धगोल) उसमें चैत्य जैसी नासिकाएँ होती हैं। कपोत-छजेका निर्गम ज्यादा होता है। जो ऊपर मजला हो उसे द्वितीय तल कहते हैं। उसके अंगों नीचे दिये हुए हैं।
अ. प्रस्तरके उपर सिंहमाला-मंचके थरों पर कोण-कोने पर कर्णफूट(दो स्तम्भोंका पर चैत्य-झूल (कमान) उस स्तम्भिकाके भागको वितर्दिका कहते है। मध्य गर्भ में गवाक्ष-कोष्टको दो तरफ दो दो स्तम्भपर सन्मुख चैत्य झूल और उसके बिच अर्थ गोलाकार वरंडिका को भद्रशाल कहते हैं। कर्ण फूट और भद्रशाल के बिचके अंतरमें नेत्रकोष्ठ (हारान्तर)-हारके नीचे क्षुद्रनासिका के उपर तिलनासिक (छोटी ठकार) यहां द्वितीय तालपूर्ण होता है।
ब-उसके पर चतुस्र अष्टांश्र या घृत-शिखरका (गुंबज जैसे) प्रारम्भ होता है। उसमें सिंहमाला पर पीढान फलक (छत छतियासे ढंका हुआ) उपर जो