Book Title: Khartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 10
________________ अनमोल हीरे हैं। निर्दोष पानी न मिलने के कारण प्राणोत्सर्ग करना मंजूर है, पर सदोष पानी अस्वीकार है, ऐसा तेजस्वी संकल्प करने वाले जिनमाणिक्यसूरि भी इसी परम्परा की अनमोल थाती है तो मात्र आठ वर्ष की अल्पायु में आचार्य पद प्राप्त करने वाले मणिधारी जिनचन्द्रसूरि इसी अमृतमयी गंगा की धारा है । नि:संदेह हमारे पास इतिहास के ऐसे-ऐसे उजले पृष्ठ हैं, जिन पर कोई भी गर्व कर सकता है। हम गौरवान्वित हैं इस चमकती दमकती त्याग एवं साधना से महिमा मंडित परम्परा प्रवाह से। इतिहास पढना, इतिहास की घटनाओं का कहना, सुनना बहुत आसान है पर इतिहास लिखना अत्यन्त श्रमसाध्य दुरूह कार्य है। हजारों वर्ष पूर्व घटित घटनाओं को आँखों देखी घटना की भाँति लिखना लेखक के लिए चुनौतीपूर्ण है। इसमें उसके धीरज की कसौटी भी है। इतिहास की सुरक्षा के बारे में हमारा समाज सजग नहीं है। इतिहास की महत्त्वपूर्ण हस्तलिखित कई पोथियाँ मात्र भंड़ारों की शोभा बढा रही हैं। वे संपादन हेतु उपलब्ध नहीं हो पातीं । कई पोथियाँ हमारे समाज की लापरवाही का भोग होकर दीमक का आहार बन चुकी हैं। तो अवशेष पोथियों पर काम करने का हमारे पास पर्याप्त समय भी नहीं है । इतिहास की खोज का दूसरा मुख्य आधार शिलालेख है। प्रशस्तियों में, प्रतिमाओं के शिलालेखों में इतिहास के महत्वपूर्ण लेख अंकित हैं। उन पर भी हमारा ध्यान नहीं है। बहुधा प्रतिष्ठा आदि के अवसरों पर उन शिलालेखों पर लापरवाही के साथ सीमेन्ट पोत दिया जाता है। खसकुंची आदि के प्रयोग के कारण वे घि हैं। और इसका महत्वपूर्ण एवं प्रामाणिक साक्ष्य नष्ट हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में इतिहास-लेखन बहुत मुश्किल कार्य है। 1 परम विद्वान् महोपाध्याय श्री विनयसागरजी ने इस कठिन बीड़े को उठाया ही नहीं बल्कि इसे सफलतापूर्वक संपन्न करके साहित्य जगत को लाभाविन्त किया है। साथ ही खरतरगच्छ समाज को भी उपकृत किया है। नि:संदेह खरतरगच्छ परम्परा उनके इस महान् अवदान को कभी भी विस्मृत नहीं कर सकेगी। इस इतिहास-लेखन से उनका सर्वतोभावेन गच्छ समर्पण मुखर हुआ है। नि:संदेह उम्र के इस संध्याकाल में उनके द्वारा सम्पन्न यह महत्वपूर्ण कृति बधाई योग्य है। उन्होंने एक बहुत बड़ी पूर्ति की है। मैं इस प्रकाशन पर उन्हें बधाई देने के साथ अपनी शुभकामना प्रस्तुत करता हूँ । बैंगलोर Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only उपाध्याय मणिप्रभ सागर www.jainelibrary.org

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