Book Title: Karmvada Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 5
________________ २१६ जैन धर्म और दर्शन ___ 'यह तो निश्चित है कि कर्ममत का असर मनुष्य जीवन पर बेहद हुआ है । यदि किसी मनुष्य को यह मालूम पड़े कि वर्तमान अपराध के सिवाय भी मुझको जो कुछ भोगना पड़ता है वह मेरे पूर्व जन्म के कर्म का ही फल है तो वह पुराने कर्ज को चुकाने वाले मनुष्य की तरह शान्त भाव से उस कष्ट को सहन कर लेगा और वह मनुष्य इतना भी जानता हो कि सहनशीलता से पुराना कर्ज चुकाया जा सकता है तथा उसी से भविष्यत् के लिए नीति की समृद्धि इकट्ठी की जा सकती है तो उसको भलाई के रास्ते पर चलने की प्रेरणा आप ही आप होगी। अच्छा या बुरा कोई भी कर्म नष्ट नहीं होता, यह नीतिशास्त्र का मत और पदार्थशास्त्र का बल-संरक्षण संबन्धी मत समान ही है। दोनों मतों का आशय इतना ही है कि किसी का नाश नहीं होता। किसी भी नीतिशिक्षा के आस्तित्व के संबन्ध में कितनी ही शङ्का क्यों न हो पर यह निर्विवाद सिद्ध है कि कर्ममत सब से अधिक जगह माना गया है, उससे लाखों मनुष्यों के कष्ट कम हुए हैं और उसी मत से मनुष्यों को वर्तमान संकट झेलने की शक्ति पैदा करने तथा भविष्य जीवन को सुधारने में उत्तेजन मिला है।' कर्मवाद के समुत्थान का काल और उसका साध्य कर्मवाद के विषय में दो प्रश्न उठते हैं-[१] कर्म-वाद का आविर्भाव कत्र हुश्रा ? [२] और क्यों ? पहले प्रश्न का उत्तर दो दृष्टियों से दिया जा सकता है---(१) परंपरा और (२) ऐतिहासिक दृष्टि (१) परम्परा के अनुसार यह कहा जाता है कि जैन धर्म और कर्मवाद का आपस में सूर्य और किरण का सा मेल है। किसी समय, किसी देश विशेष में जैन धर्म का अभाव भले ही दीख पड़े, लेकिन उसका अभाव सब जगह एक साथ कभी नहीं होता। अतएव सिद्ध है कि कर्मवाद भी प्रवाह-रूप से जैनधर्म के साथ-साथ अनादि है अर्थात् वह अभूतपूर्व नहीं है। (२) परन्तु जैनेतर जिज्ञासु और इतिहास-प्रेमी जैन, उक्त परम्परा को बिना ननु-नच किये मानने के लिए तैयार नहीं । साथ ही वे लोग ऐतिहासिक प्रमाण के आधार पर दिये गए उत्तर को मान लेने में तनिक भी नहीं सकुचाते । यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि इस समय जो जैनधर्म श्वेताम्बर या दिगम्बर शाखारूप से वर्तमान है, इस समय जितना जैन-तत्व-ज्ञान है और जो विशिष्ट परम्परा है वह सब भगवान महावीर के विचार का चित्र है । समय के प्रभाव से मूल वस्तु में कुछ न कुछ परिवर्तन होता रहता है, तथापि धारणाशील और रक्षण-शील Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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